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________________ 112 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा । अपने रुप को रचता हूँ। साधु पुरुषों की रक्षा तथा पापकर्म करने वालों का विनाश एवं धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ। ... सूत्रकार अवतारवाद का खंडन करते हुए कहते हैं कि जो आत्मा एक बार कर्ममल से सर्वथा रहित हो चुका है, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं निष्पाप हो चुका है वह पुनः अशुद्ध कर्मफल युक्त और पापयुक्त कैसे हो सकता है? जैसे बीज के जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न होना असम्भव है, वैसे ही कर्मबीज के जल जाने पर फिर जन्ममरण रुप अंकुर का फूटना असंभव है और फिर इस बात की तो गीता भी मानती है : मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्। नाप्नुवन्ति महात्मनः संसिद्धि परमां गताः।। मामुपेत्य तु कौन्तेय! पुनर्जन्म न विद्यते॥ गीता-8/15,16 'कीडापदोसेण' कहकर अवतारवादी जो अवतार का कारण बतलाते हैं उसकी संगति गीता से बैठती है क्योंकि अवतरित होने वाला भगवान दुष्टों का नाश करता है तब अपने भक्त की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है और ऐसा करने में उनमें द्वेष एवं राग का होना स्वाभाविक है। इन अलग-अलग मतवादों के साथ-साथ सूत्रकृतांग में लोकवादियों के मतों की भी समीक्षा की गयी है जिनमें मुख्य रुप से पूरणकाश्यप, मंखलि गोशाल, अजितकेशकम्बल, प्रकुद्धकात्यायन, संजयवेलट्ठिपुत्त आदि के मत समविष्ट हैं। लोकवादियों की इस मान्यता का कि लोक, अनन्त, शाश्वत एवं अविनाशी है, खण्डन करते हुये सूत्रकार' कहते हैं कि यदि लोकगत पदार्थों को उत्पत्ति एवं विनाश रहित स्थिर या कूटस्थ नित्य मानते हैं तो यह प्रत्यक्षतः विरूद्ध है क्योंकि इस जगत् में जड़ चेतन कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जो परिवर्तनशील न हो, पर्याय रुप से वह सदैव उत्पन्न व विनष्ट होते दीखता है। अतः लोकगत पदार्थ सर्वथा कूटस्थनित्य नहीं हो सकते। दूसरे लोकवादियों की यह मान्यता सर्वथा अयुक्त है कि त्रस सदैव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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