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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 111 मृषावादी एवं स्वयुक्तियों के आधार पर अविनाशी जगत् को विनाशी, एकान्त व अनित्य बताने वाले हैं। वस्तुतः लोक या जगत् का कभी नाश नहीं होता क्योंकि द्रव्य रुप से वह सदैव स्थिर रहता है। यह लोक अतीत में था, वर्तमान में है एवं भविष्य में रहेगा। यह सर्वथा अयुक्तियुक्त मान्यता है कि किसी देव, ब्रह्मा या ईश्वर ने जगत् की सृष्टि की। क्योंकि यदि जगत् कृत होता तो नाशवान होता परंतु लोक एकान्ततः ऐसा नहीं है। ये द्रव्यरुप नित्य होने से कार्य है ही नहीं। पर्याय रुप से अनित्य है परन्तु कार्य काकर्ता के साथ कोई अविनाभाव नहीं है। जीव व अजीव अनादि काल से स्वभाव स्थित हैं, वे कभी नष्ट नहीं होते। अवतारवाद (48) :- नियतिवाद की भांति अवतारवाद मत भी आजीवकों का है। समवायांग वृत्ति और सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन में त्रैराशिकों को आजीवक या गोशालक मतानुसारी बताया गया है, ये आत्मा की तीन अवस्थायें मानते है : : (i) रागद्वेष संहित कर्मबंधन से युक्त पाप सहित अशुद्ध आत्मा की अवस्था । (ii) अशुद्ध अवस्था से मुक्ति हेतु शद्ध आचरण द्वारा शुद्ध निष्पाप अवस्था प्राप्त करना, तदनुसार मुक्ति में पहुंच जाना। (iii) शुद्ध निष्पाप आत्मा का रागद्वेष के कारण उसी प्रकार पुनः कर्मरज से लिप्त हो जाता है जैसे स्वच्छ जल भी आंधी तूफान से उड़ाई गयी रे व मिट्टी के कारण वह पुनः मलिन हो जाता है। 49 इस प्रकार आत्मा मुक्ति प्राप्त कर भी क्रीड़ा और प्रदोष के कारण संसार में अवतरित होता है। वह अपने धर्मशासन की पुनः प्रतिष्टा करने के लिए रजोगुण युक्त • होकर अवतार लेता है।° यही तथ्य गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् धर्मस्य, तदात्मानम् सृजाम्यहम् ॥ हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं ही Jain Education International , For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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