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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 107 नियतिवादी जगत में सभी जीवों का पृथक व स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं। परंतु आत्मा को पृथक-पृथक मानने पर जीव स्वकृत कर्म बंध से प्राप्त सुख-दुःखादि का भोग नहीं कर सकेगा और न ही सुख-दुःख भोगने के लिये अन्य शरीर, गति तथा योनि में संक्रमण कर सकेगा। शास्त्रवार्तासमुच्चय में नियतिवादियों के मत को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि चूंकि संसार के सभी पदार्थ स्व-स्व नियत स्वरुप से उत्पन्न होते हैं अतः ये सभी पदार्थ नियति से नियमित होते हैं जिसे जब-जब जिस रुप में होना होता है वह तब-तब उस रुप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रमाण से सिद्ध इस नियति की गति को कौन रोक सकता है। नियतिवादी काल, स्वभाव, कर्म और पुरूषार्थ आदि के विरोध का भी युक्तिपूर्वक निराकरण करता है। नियतिवादी एक ही काल में दो पुरूषों द्वारा सम्पन्न एक ही कार्य में सफलता-असफलता, सुख-दुःख का मूल नियति को ही मानते हैं। इस प्रकार नियतिवादियों के अनुसार नियति ही समस्त जागतिक पदार्थों का कारण है। सूत्रकार उक्त मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि "णियाऽणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया"37 अर्थात् वे अज्ञ नियतिवादी एकान्त नियतिवाद को पकड़े हुए हैं वे यह नहीं जानते कि सुखदुखादि सभी नियतकृत नहीं होते। कुछ सुख-दुःख नियतिकृत होते हैं क्योंकि उन सुख-दुःख रुप कर्म का अबाधाकाल समाप्त होने पर अवश्य उदय होता ही है जैसे निकाचित कर्मका। परंतु कईसुख-दुःख अनियत होते हैं। अनेक सुख-दुःख पुरूष के उद्योग, काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये हुये होते हैं। अतः केवल नियति ही समस्त वस्तुओं का कारण है ऐसा मानना कथमपि उचित नहीं है। काल, स्वभाव, अदृष्ट, नियति और पुरूषार्थ ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर सापेक्ष सिद्ध होते हैं अतः एकांत रुप से केवल नियति को मानना सर्वथा दोष युक्त है। जैन दार्शनिक चार प्रमुख मतवादों :. 1 क्रियावाद 2. अक्रियावाद 3. अज्ञेयवाद और 4. वैनयिकवाद का उल्लेख करते हैं। 1. क्रियावादी :- जो आत्मा की सत्ता में विश्वास करते हैं, 2. अक्रियावादी :- जो इससे विपरीत मत रखते है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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