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90 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा
स्थानांग के उपलब्ध पाठ को समझने में आचार्यों को कितनी असुविधायें हुई थी तथा पाठभेदों के कारण स्वरुप निर्धारण में किस प्रकार की कठिनाई हुई होगी, इसका चित्रण स्वयं स्थानांग के प्रथम टीकाकार अभयदेवसूरि ने स्थानांग वृत्ति के अन्त की प्रशस्ति में किया है
सम्प्रदायहीनत्त्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्रानामद्रष्टे रस्मृतेश्चमे ।।1।।
वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धतः। सूत्रानामतिगाम्भीर्यात् मतभेदाच्च कुत्रचित् ||2|| स्थानांगवृत्ति प्रशस्ति
अर्थात् ग्रन्थ को समझने में परम्परा का अभाव है। सुतर्क का वियोग है। सब स्व-पर शास्त्र देखे नहीं जा सके हैं और न मुझे उनकी स्मृति ही है। ऐसी स्थिति में उनकी व्याख्या में मतभेद होना स्वाभाविक है। इससे निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि अभयदेव के काल तक ग्रन्थ की वाचना में विभिन्नता आ गयी थी। यद्यपि इस विभिन्नता का तात्पर्य विषयवस्तुगत विभिन्नता से न लेकर केवल पाठान्तरों से ही लेना चाहिए। यह स्पष्ट है कि अभयदेव के काल तक अर्धमागधी आगमों पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया था और इसी कारण आगमों में पाठान्तरों की सृष्टि हो गयी थी और अर्धमागधी आगमों में प्रयुक्त बहुत से देशी शब्दों का अर्थ आचार्यों को मालूम नहीं था।
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शैली :- जहाँ तक इस सूत्र की शैली का प्रश्न है स्वयं समवायांग में 12 अंगों का परिचय देते हुए स्थानांग के विषय में कहा गया है कि इसमें एकविध-द्विविध यावत् दस विध जीव, पुद्गल और लोक स्थिति का वर्णन है। समवायांग में सूचित यह शैली आज भी इस ग्रन्थ में पायी जाती है। स्थानांग के प्रथम प्रकरण में एक-एक पदार्थ अथवा क्रिया आदि का निरुपण है, द्वितीय में दो-दो का, तृतीय में तीन-तीन का, यावत् अन्तिम प्रकरण में दस-दस पदार्थों अथवा क्रियाओं का वर्णन है। जिस प्रकरण में एक संख्यक वस्तु का विचार है उसका नाम एक स्थान अथवा प्रथम स्थान है। इसी प्रकार द्वितीय स्थान यावत् दशमस्थान के विषय में समझना चाहिए।
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