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________________ 78 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा यही " आत्मतुला" है। महावीर इसी आत्मतुला के अन्वेषण के लिए हमे आमंत्रित करते हैं- एयं तुलमण्णेसिं ( वही प्र. 148)। आत्मतुला वस्तुतः सब जीवों के दुःख-सुख के अनुभव की समानता पर हमारा ध्यान आकृष्टं करती है। महावीर कहते हैं कि हमारी ही तरह सभी प्राणियों कोआयुष्य प्रिय है। वे सुखास्वादन करना चाहते हैं । दुःख से घबराते हैं। उन्हें वंध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं - सव्वे पाणा पियाउसा सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । ( 82/63) सव्वेसिं जीवियं पिय । अंदर ही अंदर हम सब भी यही चाहते हैं। अतः महावीर कहते हैं कि तृ बाह्य जगत को अपनी आत्मा के समान देख-आयओ बहिया पास (134/52)। यदि हम बाह्य जगत को अपनी आत्मा के समान देख पाते हैं तो निश्चित ही हिंसा से विरत हो सकते हैं। महावीर ने अहिंसक जीवन जीने का हमें यह एक उत्तम रक्षा-कवच दिया है, जिससे मनुष्य न केवल स्वयं अपने को बल्कि समस्त प्राणी जगत को हिंसा से बचाए रख सकता है। हमारी सारी कठिनाई यही है कि हम जिस तराजू से स्वयं को तोलते हैं, दूसरों को नहीं तोलते। दूसरों के लिए हम दूसरा तराजू इस्तेमाल करते है। किंतु महावीर " आत्मतुला" पर ही सबको तोलने के पक्षधर हैं। जब तक हम दूसरे प्राणियों को भी आत्मवत नहीं समझते, हम वस्तुतः अपनी रक्षा भी नहीं कर सकते । सबकी रक्षा में ही अपनी रक्षा भी सम्मिलित है। इसीलिए महावीर कहते हैं, सभी लोगों को समान जानकर, व्यक्ति को शस्त्र से, हिंसा से उबरना चाहिए " समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए । (पृष्ठ 122/3) यहाँ यह दृष्टव्य है कि महावीर ने हमें यह जो हिंसा-अहिंसा विवेक के लिए Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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