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आद्यमिताक्षर
विश्व अनादि है तथा अनादि काल से जीव सत्य स्वरूप से, स्वस्वरूप से विमुख होकर, च्युत होकर चतुर्गति रूपी संसार में तथा 84 लाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ अनन्त शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक आदि कष्टों को तथा जन्म-जरा-मरण को अनुभव करता है । जब योग्य अंतरंग - बहिरंग कारण, तथा योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को प्राप्त करके मिथ्या स्वरूप एवं पर स्वरूप से च्युत होकर स्व स्वरूप का अवलोकन, आवलम्बन एवं आचरण करता है तब वह अनादिकालीन समस्त वैभाविक संस्कार, वैभाविक परिणमन,. मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र को त्याग करके सुसंस्कार से सुसंस्कृत होकर स्वाभाविक परिणमन, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्राप्त करके शुद्ध स्वस्वरूप, अमृत स्वरूप, सत्य स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसे ही मोक्ष, परिनिर्वाण, कैवल्यपदवी, भगवत्स्वरूप, परमात्म स्वरूप, ईश्वरपना, प्रभू, विभू, सच्चिदानन्द, सत्यं-शिवं-सुन्दरं आदि नाम से अभिहित करते हैं। आत्मानुशासन में गुणभद्राचार्य उपर्युक्त सत्य-तथ्य को ही निम्न प्रकार से उजागर किया है
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कुबोधरागादिविचेष्टितैः
त्वयापि
प्रतीहि
ध्रुवं
भूयो
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भव्य
फलं,
जननादिलक्षणम् ।
प्रतिलोमवृत्तिभिः,
फलं प्राप्स्यसि
भव्य ! तूने बार-बार मिथ्याज्ञान एवं राग-द्वेषादि जनित प्रवृत्तियों से जो जन्म-मरणादिरूप फल प्राप्त किया है उसके विरुद्ध प्रवृत्तियों - सम्यग्ज्ञान एवं वैराग्य जनित आचरणों के द्वारा तू निश्चय से उसके विपरीत फल अजर अमर पद - को प्राप्त करेगा, ऐसा निश्चय कर ।
तद्विलक्षणम् ।।[106]
जब जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के माध्यम से घातियाँ कर्म को नाश करके अनंत शक्ति धारी आनन्द घन स्वरूप अरिहंत केवली बन जाते हैं तब विश्व कल्याण के लिए निस्वार्थ भाव से दिव्यध्वनि के माध्यम से परम अहिंसात्मक सापेक्ष प्रणाली से उपदेश देते हैं। अरिहंत भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वविद्या-विश्वविद्या विशारद एवं सर्व भाषा के ज्ञाता होते हुए भी जो परम
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