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________________ व्यंजन का अवग्रह ही होता है। सामान्य सत्तावलोकन को दर्शन कहते हैं। एक तरफ लगे हुए उपयोग को अन्य तरफ करने को भी दर्शन कहते हैं। दर्शन के अनन्तर अवग्रह होता है। इस के दो भेद है (1) व्यंजनावग्रह (2) अर्थावग्रह। व्यक्त पदार्थ का ग्रहण करना अर्थावग्रह है, अव्यक्त का ग्रहण व्यंजनावग्रह है, नवीन सकोरा के समान। जैसे नूतन मिट्टी का सकोरा दो, तीन सूक्ष्म जलकण के सींचने से गीला नहीं होता है परन्तु लगातार जल-बिन्दुओं के डालते रहने पर वही सकोरा धीरे-धीरे गीला हो जाता है उसी प्रकार आत्मा के प्रथम, शब्दादि का अव्यक्त रूप से ग्रहण होता है इसलिए प्रथम व्यंजनावग्रह होता है और तदनन्तर व्यक्त शब्दादि का ग्रहण होने से अर्थावग्रह होता है। __न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्। (19) This is not possible to the eye or the mind. [It is possible to remaining four senses] __ चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है। चक्षु और मन अप्राप्यकारी है। चूंकि नेत्र अप्राप्त, योग्य दिशा में अवस्थित, युक्त सन्निकर्ष के योग्य देश में अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदि से व्यक्त हुए पदार्थ को ग्रहण करता है और मन भी अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करता है। अत: इन दोनों के द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता। "पुढे सुणेदि सदं अपुढे चेव पस्सदे रू। गंध रसं च फासं पुट्ठमपुटुं वियाणादि॥" ___ पञ्चसंग्रह गा. 68 श्रोत स्पृष्ट शब्द को सुनता है और अस्पृष्ट शब्द को भी सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूप को ही देखता है। तथा घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रम से स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्श को जानती है।" चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह स्पृष्ट पदार्थ को नहीं ग्रहण करती। यदि चक्षु इन्द्रिय प्राप्यकारी होती तो क्या वह त्वचा इन्द्रिय के समान 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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