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________________ (11) संख्या :- जघन्य से दो समय तक और उत्कृष्ट से आठ समय तक निरन्तर सिद्ध होते रहते हैं। जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह महीने का अन्तर पड़ सकता है। सिद्धों के विरहकाल को अन्तर कहते हैं, अर्थात् एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध होने के मध्य का काल वा जितने समय तक कोई भी जीव मोक्ष में नहीं जाए, उसको अन्तर कहते हैं। सिद्ध होने का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है। उसके बाद कोई न कोई जीव मोक्ष में अवश्य जायेगा। जितने जीव एक साथ मोक्ष में जाते हैं, उसे संख्या कहते हैं। एक समय में जघन्य से एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से 108 . सिद्ध हो सकते हैं, ऐसा जानना चाहिए। (12) अल्पबहत्व:-क्षेत्रादि भेद से भिन्न-भिन्न की परस्पर संख्या विशेष संख्या के तारतम्य को अल्पबहत्व कहते हैं। क्षेत्र काल लिंग आदि ग्यारह अनुयोग द्वार से भेदों की परस्पर संख्या विशेष को अल्पबहुत्व कहते हैं। जैसे-प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा सिद्धक्षेत्र में सिद्ध होते हैं अत: उनमें अल्पबहुत्व नहीं है। परन्तु भूतपूर्व नय की अपेक्षा यहाँ विचार किया जाता है-भूतपूर्व नय की अपेक्षा क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार के हैं-एक जन्म की दृष्टि से। और दूसरे संहरण की दृष्टि से उनमें संहरण सिद्ध अल्प है, जन्म सिद्ध उनसे संख्यात गुणे हैं। संहरण दो प्रकार का है-एक स्वकृत दूसरा परकृत। देवों के द्वारा एवं चारण विद्याधरों के द्वारा कृत संहरण परकृत है और चारण विद्याधरों का स्वयं संहरण स्वकृत है। जिस क्षेत्र में जन्म हुआ है वह क्षेत्र कहलाता है और देव विद्याधर उठाकर समुद्र में डाल देते हैं या स्वयं विद्या या ऋद्धियों से दूसरे स्थान में चले जाते हैं, वह संहरण कहलाता है। उनके क्षेत्रों के विभाग को कहते हैं-कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र-द्वीप, ऊपर, नीचे, तिरछे आदि। उनमें ऊर्ध्वलोक सिद्ध सबसे स्तोक-कम हैं। उर्ध्वलोक से सिद्ध होने वाले जीवों की अपेक्षा अधोलोक से सिद्ध होने वाले संख्यात गुणे अधिक हैं। उससे भी तिर्यग्लोक सिद्ध संख्यात गुणे हैं! अधोलोक का अर्थ नरक वा ऊर्ध्वलोक का अर्थ स्वर्ग नहीं है अपितु अधोलोक का अर्थ है - किसी ने मुनिराज को नीचे गडढे में डाल दिया हो या पर्वत आदि ऊँचे स्थान में ले गये हों वह ऊर्ध्वलोक कहलाता है। वहाँ से सिद्ध होने वाले अधो लोक सिद्ध और ऊर्ध्वलोक सिद्ध कहलाते हैं। सबसे कम 654 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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