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12. Numerical comparison. (The sacred feoks of the jains TATVARTHA SUTRAM - by J.L.Jains)
क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र प्रत्येक बोधित, बुद्ध बोधित ज्ञान अवगाहना अन्तर संख्या और अल्प बहुत्व इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य हैं।
प्रत्युत्पन्न और भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा क्षेत्रादि के द्वारा सिद्धों में भेद साध्य है। क्षेत्र को आदि लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त 12 अनुयोगों के द्वारा प्रत्युत्पन्न नय और भूत प्रज्ञापन नय की अपेक्षा सिद्धों के विकल्प साध्य होते
(1) क्षेत्र:- सिद्धिक्षेत्र में वा कर्मभूमि में सिद्ध होते हैं। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सिद्ध क्षेत्रं, स्व प्रदेश या आकाश प्रदेश में सिद्धि होती है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में और संहरण की अपेक्षा मनुष्य लोक में सिद्धि होती है। ऋजुसूत्र नय और तीन शब्दनय (शब्द नय, समभिरूढ़ नय, और एवंभूत नय) प्रत्युत्पन्न नय वर्तमान ग्राही है तथा शेष नय (संग्रह, व्यवहार, और नैगम) उभय (वर्तमान और भूतकाल) विषयग्राही (ग्रहण करने वाले)
(2) काल:- एक समय में सिद्ध होते हैं वा साधारण रूप से अवसर्पिणी
और उत्सर्पिणी काल में सिद्ध होते हैं। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा एक समय में ही सिद्ध होता है क्योंकि सिद्ध होने का काल तो एक समय ही है। भूतप्रज्ञापन नय की अपेक्षा दो विकल्प हैं-जन्म से और संहरण से। जन्म की अपेक्षा सामान्यतः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सुषम-सुषमा के अन्त भाग में और दुषम-सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। दुषम-सुषमा में उत्पन्न हुआ जीव दुषमा में सिद्ध हो सकता है, परन्तु दुषमा में या प्रथम द्वितीय काल में तथा सुषमा-सुषमा के प्रथम भाग में वा दुषमा-दुषमा काल में उत्पन्न हुआ कभी सिद्ध नहीं हो सकता। संहरण की दृष्टि से सभी कालों में (उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी में) सिद्ध हो सकते हैं। (3) गति:- सिद्ध गति में वा मनुष्य गति में सिद्धि होती है। प्रत्युत्पन्न नय
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