________________
जह वा अग्गिस्स सिहा सहावदो चेव होहि उड्ढगदी । जीवस्स तह सभावो उड्ढगमणमप्पवसियस्स ॥ (2124)
अथवा जैसे आग की लपट स्वभाव से ही ऊपर को जाती है वैसे ही कर्मरहित स्वाधीन आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है।
तो सो अविग्गहाए गदीए समए अणंतरे चेव । पावदि जयस्स सिहरं खित्तं कालेण य फुसंतो ॥ (2125)
कर्मों का क्षय होते ही वह मुक्त जीव एक समय वाली मोड़े रहित गति से सात राजु प्रमाण आकाश के प्रदेशों का स्पर्श न करते हुए अर्थात् अत्यन्त तीव्र वेग से लोक के शिखर पर विराजमान हो जाता है।
लोकाग्र के आगे नहीं जाने में कारण धर्मास्तिकाया भावात् । (8)
But it does not rise higher than the extreme limit to or the universe because (beyond it there is) the non-existence of धर्मास्तिकाय or the
medium of motion.
धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव लोकान्त से और ऊपर नहीं जाता।
समस्त कर्म बन्धन से मुक्त होने के बाद सिद्ध जीव के अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख अनंत वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व आदि अनंत गुण प्रगट हो जाते हैं। जीव की गति स्वाभाविक उर्ध्व गति होने के कारण एवं सम्पूर्ण कर्मबन्धन से सिद्ध जीव मुक्त होने से यह गति पूर्ण रूप से स्वाभाविक रूप में प्रगट होती है। सिद्ध जीव की अनन्त शक्ति होती है उर्ध्वाकाश· अनंत होता है भविष्य काल भी अनंत होता है तब प्रश्न होता है सिद्ध जीव क्या अनंत काल तक अनंत आकाश में गमन करते रहते हैं? उस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है कि काल अनंत होते हुए शक्ति, अनंत होते हुए एवं उर्ध्वाकाश अनंत होते हुए भी सिद्ध जीव केवल एक समय में. 7 राजू गमन करके लोकाग्र में स्थिर हो जाते हैं क्योंकि अलोकाकाश में 'गति - माध्यम' धर्म द्रव्य" के अभाव से सिद्ध जीव अलोकाकाश में गमन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
649
www.jainelibrary.org