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(4) अधिकरण :- वस्तु के आधार या अधिष्ठान को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण दो प्रकार का है - (1) आभ्यन्तर और (2) बाह्य।
(1) आभ्यन्तर अधिकरण :- जिस सम्यग्दर्शन का जो स्वामी है वही . उसका आभ्यन्तर अधिकरण है।
(2) बाह्य अधिकरण :- एक राजूचौड़ी और चौदह राजूलम्बी लोकनाड़ी
(5) स्थिति :- वस्तु के अस्तित्व काल को स्थिति कहते हैं। जैसेऔपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है। क्षायिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तर्मुहर्त दो पूर्वकोटि अधिक तेंतीस सागर है। मुक्त जीव की सादि-अनन्त है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागर है।
(6) विधान :-वस्तु के भेद या प्रकार को विधान कहते हैं। (सर्वाथसिद्धि पृ.20 पेरा 31)
भेद की अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्य से एक है। निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है तथा श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का और श्रद्धान करने योग्य पदार्थो की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है। इसी प्रकार यह निर्देश आदि विधिज्ञान और चारित्र में तथा जीव और अजीव आदि पदार्थो में आगम के अनुसार लगा लेना चाहिए।
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ।(8) (The eight priniciples are known) also by(1) सत् Existence
(2) HÜCUT Number, enumeration of kinds or classes.
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