SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 611
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम्। यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञैः पूर्वमात प्रकीर्तितम् ॥(26) . समस्त अनिष्ट पदार्थों का संयोग होने पर उनके वियोग के लिए जो चिन्ता होती है उसे भी तत्त्वज्ञ जनों ने प्रथम आर्तध्यान कहा है। विपरीतं मनोज्ञस्य। (31) The second monomania is its opposite i.e. şefauts on beings reparated from a pleasing object to repeatedly thinkg of reunion with __मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत् चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान हैं। . पूर्वकथित से विपर्यय विपरीत कहलाता है। जैसे-मनोज्ञ विषय (प्रियवस्तु, पुत्र, कलत्र, धनादि) का वियोग हो जाने पर उसके पुन: संयोग के लिये (पुनः प्राप्ति के लिये) जो अत्यधिक चिन्ताधारा चलती है, मन अन्य पदार्थो में न जाकर बार-बार उसी के चिन्तन में लीन रहता है, वह भी आर्तध्यान है। मोहनीय कर्म के कारण जीव बाह्य वस्तु के इष्ट एवं मनोज्ञ का आरोप करके उसके प्रति ममत्व करता है। उस वस्तु को वह स्ववस्तु मानता है एवं उसकी सतत् सुरक्षा चाहता है। उसको वह त्यागना नहीं चाहता है। उसका सामीप्य सतत् चाहता है। उसके विरह से वह दुःखी होता है एवं उसको प्राप्त करने के लिए वह सतत् प्रयत्न करता है। जैसे- सीता हरण के बाद क्षायिक सम्यक्दृष्टि, बलभद्र, रामचन्द्र तद्भव मोक्षगामी होते हुए भी सीता के लिए अत्यन्त दुखी हुए, विक्षुब्ध हुए, उसका ही ध्यान करने लगे। इतना ही नहीं विरह वेदना से इतना विक्षुब्ध हो गये थे कि जिससे वे मानसिक रूप से विकलांग होकर नदी, पर्वत, पेड़, पशु, पक्षी से भी सीता के बारे में पूछताछ करते थे। इसी प्रकार इष्ट पुत्र, मित्र, भाई बन्धु के वियोग से, मरण से जीव इस इष्ट वियोगज आर्तध्यान को इतना करता है कि खाना-पीना भूल जाता है, शोक करता है, सिर फोड़ लेता है, यहाँ तक कि कभी-कभी आत्म हत्या भी कर लेता है। परन्तु इस ध्यान से अज्ञानी व्यक्ति यह नहीं जानता है कि 596 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy