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________________ इनकी वैयावृत्य के भेद से वैयावृत्य दस प्रकार का है। .. वैयावृत्त्य :- वैयावृत्त्य का भाव वा कर्म वैयावृत्त्य है। कायचेष्टा से वा अन्य द्रव्यान्तर से व्यावृत्त (सेवा करने में तत्पर) पुरुष का कर्म वा भाव वैयावृत्त्य कहलाता हैं। (1) आचार्य :- जिनसे व्रतों को धारण कर उनका आचरण किया जाता है, वे आचार्य हैं। जिन सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि गुणों के आधारभूत महापुरुष से भव्यजीव स्वर्गमोक्षरूप अमृत के बीजभूत (स्वर्ग मोक्षदायक) व्रतों को ग्रहण कर अपने हित के लिये आचरण करते है, व्रतों का पालन करते हैं वा जो दीक्षा देते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। (2) उपाध्याय:- जिनके 'उप' समीप जाकर अध्ययन किया जाता है, वे उपाध्याय हैं। अथवा, जिन व्रतशील भावनाशाली महानुभाव के समीप जाकर भव्यजन विनयपूर्वके श्रुत का अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय हैं। (3) तपस्वी:- महोपवास (एक महीना, दो महीना आदि का उपवास) करके जो महातपों का अनुष्ठान करते हैं, वे तपस्वी कहलाते हैं। (4) शैक्ष्य :- शिक्षाशील को शैक्ष्य कहते हैं, अर्थात् श्रुतज्ञान के शिक्षण में तत्पर और सतत् व्रत भावना में निपुण शैक्ष्य (शिक्षक) कहलाते हैं। (5) ग्लान:- जिनका शरीर रोगों से आक्रान्त है. वे ग्लान कहलाते हैं। (6) गण:- स्थविरों की सन्तति को गण कहते हैं। (7) कुल:-दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य-परम्परा कुल कहलाती हैं। (8) संघ:- यति, ऋषि, मुनि और अनगार, इन चार प्रकार के मुनियों के समूह को संघ कहते हैं वा चार प्रकार के मुनियों का समूह संघ कहलाता (9) साधु:- चिरकाल से भावित प्रव्रज्यागुण (दीक्षा गुण) वाले पुराने साधक साधु कहलाते हैं। (10) मनोज्ञ :- अभिरूप को मनोज्ञ कहते हैं। अथवा, जो विद्वान् मुनि वाग्मिता (वाक्पटुता), महाकुलीनता आदि गुणों के द्वारा लोक में प्रसिद्ध हैं, वे मनोज्ञ हैं। ऐसे लोगों का संघ में रहना लोक में प्रवचन गौरव का कारण होता हैं। 585 Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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