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________________ तीर्थंकरों द्वारा कथित धर्म सर्वजगत् का हित करने वाला है। विशुद्ध मन से उसका आश्रय लेने वाले मुनष्य जगत् में धन्य हैं। जेणेह पाविदव्वं कल्लाणपरंपरं परमसोक्खं । सो जिणदेसिदधम्मं भावेणुववज्जदे पुरिसो ॥ (753) जिसे इस जगत् में कल्याणों की परम्परा और परम सौख्य प्राप्त करना है वह पुरुष भाव से जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित धर्म को स्वीकार करता है । उवसम दया य खंती वड्ढड् वेरग्गदा य जह जह से । तह तह ये मोक्खसोक्खं अक्खीणं भावियं होइ || (755) जैसे-जैसे इस जीव के उपशम, दया, क्षमा और वैराग्य बढ़ते हैं वैसे-वैसे ही अक्षय मोक्षसुख भावित होता है। संसारविसमदुग्गे भवगहणे कह वि मे भ्रमंतेण । दिट्ठो जिणवरदिट्ठो जेट्ठो धम्मोत्ति चिंतेज्जो || (756) संसारमय विषमदुर्ग इस भवन में भ्रमण करते हुए मैने बड़ी मुश्किल से जिनवर कथित प्रधान धर्म प्राप्त किया है - इस प्रकार से चिन्तवन करे । इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं का सानिध्य मिलने पर उत्तमक्षमादिके धारण करने से महान् संवर होता है। अनुप्रेक्षा दोनों का निमित्त है इसलिए 'अनुप्रेक्षा' वचन मध्य में दिया है। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता हुआ यह जीव उत्तमक्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परीषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है। 3 दस दो य भावणाओं एवं संखेवदो समुद्धिट्ठा । जिणवयणे दिट्ठाओ बुहजणंवेरग्ग जणणीओ ॥ (765) ( मू.चा. पृ. 36 ) इस प्रकार संक्षेप में द्वादश भावना कही गयी हैं जोकि, जिनवचन में विद्वानों के वैराग्य की जननी मानी गई हैं। Jain Education International अणुवेक्खाहिं एवं जो अत्ताणं सदा विभावेदि । सो विगदसव्वकम्मो विमलो विमलालयं लहदि || ( 766 ) इन अनुप्रेक्षाओं के द्वारा जो हमेशा आत्मा की भावना करता है वह For Personal & Private Use Only 559 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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