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________________ दर्शन मोह के उपशान्त होने से ग्रन्थश्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहा गया है | दर्शनमोह का उपशम होने से ग्रन्थश्रवण के बिना जो कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है उसे मार्गसम्यग्दर्शन कहते हैं । त्रेसठ शलाकापुरूषों के पुराण (वृतान्त) के उपदेश से जो सम्यग्दर्शन (तत्त्वश्रद्धान) उत्पन्न होता है उसे सम्यग्ज्ञान Satarपन्न करनेवाले आगमरूप समुद्र में प्रवीण गणधर देवादि ने उपदेशसम्यग्दर्शन कहा है। सूचनंश्रद्दधानः, बीजैः । पदार्थान्, संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रूचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टि । (13) आकर्ण्याचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूक्तासी सूत्रदृष्टिर्दुरधिगमगतेरर्थसार्थस्य कश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाब्दीजदृष्टिः मुनि के चरित्र (सकलचरित्र) के अनुष्ठान को सूचित करनेवाले आचारसूत्र को सुनकर जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे उत्तम सूत्रसम्यग्दर्शन कहा गया है। जिन जीवादि पदार्थों के समूह का अथवा गणितादि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है उनका किन्हीं बीजपदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाले भव्य जीव के जो दर्शनमोहनीय के असाधारण उपशम वश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्य जीव पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान करके तत्त्वश्रद्धान (सम्यग्दर्शन) को प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शन को संक्षेपसम्यग्दर्शन कहा जाता है। यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरूचिरथ तं विद्धि विस्तार दृष्टि, संजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः। दृष्टिः साङ्गाबाह्यप्रवचनमवगाह्येोत्थिता यावगाढा, कैवल्यालोकितार्थे रूचिरिह परमवगाढेति रूढा ।। (14) जो भव्य जीव बारह अंगों को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शन से युक्त जानो अर्थात् द्वादशअंग के सुनने से जो तत्त्वश्रद्धान होता है, उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते हैं । अंगबाह्य आगमों के पढ़ने के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थश्रद्धान होता है वह अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगों के साथ अंगबाह्यश्रुत का अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढसम्यग्दर्शन कहते हैं । केवलज्ञान 50 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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