________________
स्वामी ने चरणानुयोग की मुख्यता करके रत्नकरण्डक श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन की परिभाषा निम्न प्रकार की हैश्रद्धानं
परमार्थना-माप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढ़-मष्टांगं सम्यग्दर्शन-मस्मयम्॥(4) .
(श्रा.आ.) सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरू का तीन मूढ़ता रहित, आठ अंग सहित, आठ मद रहित जैसा का तैसा श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहलाता है। .
जीव अजीव तत्त्व अरू आसव, बन्धरू संवर जानो। निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो॥ है सोई समकित ववहारी अब इन रूप बखानो। तिनको सुन सामान्य विशेषै दृढ प्रतीत उर आनो॥(3)
(छ.ढा.) सम्यग्दर्शन के उत्पत्ति की अपेक्षा भेद
तन्निसर्गादधिगमाद्वा। (3) This (right belief is attained) by:- . (1) farefst :- Intuition, independently of the precept for others; or (2) अधिगमज :- Intuition, acquisition of knowledge from external
sourses. e.g. by precept of others or reading the
scriptures. वह सम्यग्दर्शन (निर्सगात्) स्वभाव से (अधिगमात्) पर उपदेशादि से उत्पन्न होता है।
जो जीव पहले गुरू उपदेश आदि निमित्त को प्राप्त करके सम्यग्दर्शन की उपलब्धि कर लेता है पुनः कुछ निमित्त को प्राप्त करके मिथ्यादृष्टि बन जाता है, ऐसा जीव परोपदेश बिना या स्वल्प परोपदेश प्राप्त करके जिस सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है उस सम्यग्दर्शन को निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। जो सम्यग्दर्शन परोपदेश से उत्पन्न होता है उस सम्यग्दर्शन को अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं।
48
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org