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________________ रूप से पलाल (घास) तो उसे अनायास प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार मुनिराज की तपक्रिया में प्रधान फल मोक्ष है। अर्थात् गौणता से तप का फल किसान के घास की प्राप्ति के समान अभ्युदय की प्राप्ति है वह आनुषङ्गिक है, ऐसा जानना चाहिए। द्रव्य संग्रहः में कहा भी हैं जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा।(36) जिस आत्मा के परिणामरूप भाव से कर्मरूपी पुद्गल फल देकर नष्ट. . होते हैं वह तो भाव निर्जरा है और सविपाक निर्जरा की अपेक्षा से यथाकाल अर्थात् काललब्धिरूप कालसे तथा अविपाक निर्जरा की अपेक्षा से तप से जो कर्मरूप पुद्गलों का नष्ट होना है सो द्रव्य निर्जरा है। पंचास्तिकाय प्राभृत में कहा गया है संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहि। कम्माण णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं।(144) निर्मल आत्मा के अनुभव के बल से शुभ तथा अशुभ भावों का रूकना संवर है। निर्विकल्प लक्षणमयी ध्यान शब्द से कहने योग्य जो शुद्धोपयोग है सो योग है। शुद्धात्मानुभव के सहकारी कारण बाह्य छ: प्रकार के तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन व कायक्लेश हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छ: तपस्वाभाविक शुद्ध अपने आत्मा के स्वरूप में तपने रूप अभ्यंतर तप हैं। जो साधु संवर और योग से युक्त हो बारह प्रकार तप का अभ्यास करता है। वह बहुत से कर्मों की निर्जरा अवश्य कर देता है। यहाँ यह भाव है कि, बारह प्रकार तप के द्वारा वृद्धि को प्राप्त जो वीतराग परमानन्दमयी एक शुद्धोपयोग सो भाव निर्जरा है। यही भाव द्रव्यकर्मों को जड़मूल से उखाडने को समर्थ है। इस शुद्धोपयोग के बल से पूर्व में बांधे हुए कर्म पुद्गलों का रस रहित होकर संवर पूर्वक एक देश झड़ जाना सो द्रव्य निर्जरा है। 526 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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