________________
अयोगकेवली के उसका संवर होता है। पंचास्तिकाय में कुन्द कुन्द देव ने कहा भी हैं
इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुठु मग्गम्मि । जावत्तावत्ते हिं पिहियं पावासवच्छिदं ।। (141)
मार्ग वास्तव में संवर है, उसके निमित्त से ( उसके हेतु से ) इन्द्रियों, कषायों तथा संज्ञाओं का जितने अंश में अथवा जितने काल निग्रह किया जाता है उतने अंश में अथवा उतने काल पापास्रव का द्वार बन्द होता है ।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु ।
णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ।। (142)
जिसे समग्र पर द्रव्यों के प्रति रागरूप, द्वेषरूप या मोहरूप भाव नहीं है, उस भिक्षु को - जो कि निर्विकार चैतन्यपने के कारण समसुख दुःख है उसे शुभ और अशुभ कर्म का आस्रव नहीं होता, किन्तु संवर ही होता है। इसलिये यहां (ऐसा समझना कि) मोह राग, द्वेष परिणाम का निरोध सो भावसंवर है, और वह जिसका निमित्त है ऐसा जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलों शुभाशुभ कर्म परिणाम का निरोध सो द्रव्यसंवर है ।
सजदा खलु पुणं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स । संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स ||143॥ जिस योगी को, (अयोग केवली) विरत अर्थात् सर्वथा निवृत्त वर्तते हुए, योग में-वचन, मन और कायसम्बन्धी क्रिया में शुभपरिणामरूप पुण्य और अशुभ परिणामरूप पाप जब नहीं होते, तब उसे शुभाशुभभावकृत द्रव्यकर्म का स्वकारण के अभाव के कारण, संवर होता है। इसलिये यहां शुभाशुभ परिणाम का निरोधरूप भावपुण्य पापसंवर, द्रव्य पुण्यपापसंवर का प्रधान हेतु अवधारना ( समझना ) चाहिये ।
संवर के कारण सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रै: । (2)
Stoppage (is effected) by control, carefulness, virtue, contemplation conquest by endurance and conduct. It is produced by
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
523
www.jainelibrary.org