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( 8 ) अन्तराय
बहयोगो वा, यस्मिन् मध्येऽवास्थिते
दात्रादीनां - दानादिक्रियाऽभावः दानादीच्छाया बहिर्भावो वा सोऽन्तरायः । दाता और पात्र आदि के बीच में विघ्न करावे वा जिस कर्म के उदय से दाता और पात्र के मध्य में अन्तर डाले उसे अन्तराय कहते हैं अथवा, जिसके रहने पर दाता आदि दानादि क्रियाएँ नहीं कर सके, दानादि की इच्छा से पराङ्मुख हो जावें, वह अन्तराय कर्म है।
प्रकृति बन्ध के उत्तर भेद पञ्चनवद्वयष्टाविंशति चतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदा यथाक्रमम् (5)
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There are of 5,9,2,28,4,42,2,5 classes respectively.
आठ मूल प्रकृत्तियों के अनुक्रम से पाँच, नौ, दो, अठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच भेद हैं।
गोम्मट्टसार में कहा गया है
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कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावेत्ति होदि, दुविहं तु । पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती तु ॥
भावकम्मं
पृ.5)
सामान्य से कर्म एक प्रकार का है, द्रव्य, भाव की अपेक्षा से दो प्रकार है। पुद्गलपिंड को द्रव्यकर्म कहते हैं तथा उसमें जो फल देने की शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं।
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( गो . क.का.,
सामान्य से कर्म आठ प्रकार भी है अथवा एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भी उसके भेद हैं। तथा उन आठ कर्मों में घातियाँ और अघातियां रूप दो भेद हैं।
तं पुण अट्ठविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा ।
ताणं पुण घादित्ति अघादित्ति य होतिं सण्णाओ ॥ (7)
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयमोहणियं । आउगणामं गोदंतरायमिदि अट्ठ पयडीओ ॥ ( 8 )
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