________________
के परिणामों की वृद्धि कारण भूतता है, वा जो ग्रहण करने वाले के तप, स्वाध्याय, ध्यान और परिणामों की शुद्धि आदि की वृद्धि का कारण हो, वह द्रव्य विशेष कहा जाता है।
रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते
।
द्रव्यं तदेव देयं सुतप: स्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥ ( 170 )
पु. सि.
जो राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख भय आदि को नहीं करता है सुतप करने में, स्वाध्याय करने में जो वृद्धि करने वाला हो वही द्रव्य देने योग्य है। (3) दातृ विशेष - जनसूया, अविषाद आदि दातृ विशेष हैं। पात्र के प्रति ईर्षा का नहीं होना, त्याग में विषाद नहीं होना, देने की इच्छा करने वाले में या देने वाले में वा जिसने दान दिया है उन सब में प्रीति होना, कुशल अभिप्राय होना, प्रत्यक्ष फल की आकाङक्षा नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना और निदान नहीं करना दातृ विशेष है।
1
ऐहिकफलानपेक्षा क्षांतिर्निष्कपटतानसूयत्वम् अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातृगुणाः ।। (169) पु. सि.
इस सम्बन्धी एवं परलोक सम्बन्धी फल की अपेक्षा नहीं करना, क्षमाभाव धारण करना, मायाचार नहीं रखना, ईर्ष्या भाव नहीं रखना, किसी भी कारण से विषाद - खेद नहीं करना और हो जाने पर इस बात का हर्ष मनाना किं मुझे आज बहुत फायता हो गया । अहंकार मान नहीं करना इस प्रकार निश्चय से दाता गुण सम्पन्न होना आवश्यक है।
(4) पात्र विशेष मोक्ष मे कारण-भूत गुणों का संयोग जिसमें होता हो वह पात्र विशेष है। मोक्ष के कारण भूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्यज्ञान और सम्यक्चारित्र से जो युक्त है अर्थात् मोक्ष के कारण भूत सम्यग्दर्शनादि गुण जिसमें पाये -जाते हैं वह पात्र विशेष है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
463
www.jainelibrary.org