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के लिए, पुण्य की प्राप्ति के लिए तथा विघ्न को दूर करने के लिए इन चार बातों को चाहते हुए ग्रन्थ के आदि में इष्ट देव की स्तुति की जाती है।
यहाँ प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इष्ट देव कौन हैं ? इष्ट देव वे हैं. जो सम्पूर्ण दोषों से रहित हो, स्वतंत्रता को प्राप्त कर लिया हो तथा स्वतंत्रता के मार्ग का उपदेशक हो । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा हैं :
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दोषेण
आप्तेनोच्छिन्न सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ (5)
नियम से आप्त को दोष रहित, सर्वज्ञ और आगम का स्वामी होना चाहिए | क्योंकि अन्य प्रकार से आप्तपना नहीं हो सकता ।
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सर्व दोषों से रहित होने पर एवं आध्यात्मिक गुणों से सहित जीव आप्त है, भले उसका नाम कुछ भी हो। गुणग्राही आदर्श व्यक्ति गुण चाहता है और उस गुण की पूजा करता है, न कि व्यक्ति की और न हि मूर्ति की । अकलंक देव ने कहा है :
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यो विश्वं वेद वेद्यं जनन जलनिधेर्भङ्गिनः पारदृश्वा, पौर्वापर्याविरूद्धं वचनमनुपमं निष्कलंकं यदीयम् । तं वंदे साधुवंद्यं सकल गुण निधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तं, बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदल निलयं केशवं वा शिवं वा ॥ (9) (अ. स्तोत्र)
जो विश्व के सम्पूर्ण ज्ञान को जान लिया अर्थात् विश्व विद्या विशारद है। जो जन्म-जरा-मरण रूपी समुद्र को नष्ट कर लिया, पार कर लिया। जिनके वचन पूर्वापर विरोध से रहित, सम्पूर्ण दोषों से रहित, उपमा रहित है, सम्पूर्ण गुणों की खान स्वरूप समस्त दोषों को ध्वस्त कर लिया और साधुओं से भी वन्दनीय ऐसी आत्मा को वन्दना है, भले ऐसे गुण सहित बुद्ध हो, महावीर हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो, या शिव हो । हरिभद्र सूरि ने लोकतत्त्व निर्णय में कहा है
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