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________________ रहते हैं।) इनके सेवन में अल्पफल और बहुविघात होता है अत: इनका त्याग ही कल्याणकारी है। यान, वाहन, गाडी, रथ, घोड़ा, अलंकार आदि में इतने मुझे इष्ट हैं, रखना हैं अन्य अनिष्ट हैं' इस प्रकार विचार कर अनिष्ट से निवृत्ति करनी चाहिए, क्योंकि जब तक अभिसन्धि (अभिप्राय) पूर्वक वस्तु का त्याग नहीं किया जाता है तब तक वह व्रत नहीं माना जा सकता। जो स्व को इष्ट है परन्तु शिष्ट जनों के लिए उपसेव्य नहीं है, धारण करने योग्य नहीं है ऐसे विचित्र प्रकार के वस्त्र, विकृत वेष, आभरण आदि अनुपसेव्य पदार्थों का यावज्जीवन परित्याग करना चाहिए। यदि यावज्जीवन त्याग करने की शक्ति नहीं हो तो अमुक समय की मर्यादा से अमुक वस्तुओं का परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिए। अतिथिसंविभाग व्रत- संयम की विराधना न करते हुए जो गमन करता है, वह अतिथी है। चारित्र लाभ रूपी बल से सम्पन्न होने के कारण जो संयम का विनाश न करके भ्रमण करता है, वह अतिथि है वा जिसके आने की तिथि निश्चित नहीं है, वह अतिथि है (जिसका अनियत काल में गमन है)। संविभाजन को संविभाग कहते हैं। अतिथि के लिए संविभाग-दान देना, अतिथिसंविभाग है। भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय (वसतिका) के भेद से अतिथि संविभागवत चार प्रकार का है। मोक्षार्थी, संयमपरायण, शुद्धमति अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष आहार देना चाहिए। उस मुनि के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को बढ़ाने वाले पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्र आदि धर्मोपकरण भी देने चाहिए। परम श्रद्धा और भक्ति से उन यतियों के लिए योग्य औषधि और वसतिका (रहने का स्थान) भी देना चाहिए। सामायिक- काय, वचन और मन की क्रियाओं से निवृत्त होकर आत्मा में एकत्वरूप में गमन (लीन) होना ही संयम है। समय का भाव या समय का प्रयोजन ही सामायिक है, अर्थात् मन, वचन और काय की क्रियाओं का निरोध करके अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना ही सामायिक है। साम्य भाव को “समता" कहते हैं। इस साम्य भाव में रहने को 438 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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