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व्रतों की विशेषता
निश्शल्यो व्रती। (18) A art Vrati, or a vower should be without (blemish which is like a thron) Siret Shalya, which makes the whole body restless.)
जो शल्यरहित है वह व्रती है।
अनेक प्रकार से प्राणीगण को दुःख देने से शल्य कहलाती है। विविध प्रकार की वेदना रूपी शलाकाओं (सुइयों) के द्वारा जो प्राणियों को छेदती है, दुःख देती है, वे शल्य कहलाती है।
जैसे-शरीर में चुभे हुए काँटा आदि प्राणियों को बाधा करने वाली शल्य हैं, अर्थात् शरीर में चुभा हुआ काँटा प्राणियों को दुःख देता है, उसी प्रकार कर्मोदय विकार भी शारीरिक और मानसिक बाधा का कारण होने से शल्य की भाँति शल्य नाम से उपचरित किया जाता है।
माया, मिथ्यात्व और निदान के भेद से शल्य तीन प्रकार के हैं। यह शल्य तीन प्रकार की है - माया, मिथ्यात्व और निदान । माया, निकृति, वञ्चना, छल-कपट ये सब एकार्थवाची हैं। विषयभोगों की काङ्क्षा निदान है। अतत्वश्रद्धान मिथ्यादर्शन है। इन तीन प्रकार की शल्यों से निष्क्रान्त (रहित) नि:शल्य व्यक्ति व्रति कहलाता है।
निःशल्यत्व और व्रतित्व में अंग-अंगिभाव विवक्षित है। क्योंकि केवल हिंसादि विरक्ति रूप व्रत के सम्बन्ध से व्रती नहीं होता है जब तक कि शल्यों का अभाव न हो। शल्यों का अभाव होने पर ही व्रत के सम्बन्ध से व्रती होता है, यहाँ ऐसा विवक्षित है। जैसे बहुत दूध और घी वाला गोमान् कहा जाता है। बहुत दूध और घृत के अभाव में बहुत सी गायों के होने पर भी गोमान् (गायवाला) नहीं कहलाता। उसी प्रकार सशल्य होने पर व्रतों के रहते हुए भी व्रती नहीं कहा जा सकता। जो व्रत सहित निःशल्य होता है, वही व्रती है।
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