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________________ उत्तम विचार करोगे तो उत्तम बनोगे । भावना भव नाशनी भावना भव वर्द्धनी । भावना से अनन्त दुःख के कारणभूत भव वृद्धि होती है एवं भावना संसार विलय को प्राप्त हो जाता है। . भावना के बल पर मुनि महाराज बाह्य उपसर्ग, परीषह को जीतते हैं एवं वैराग्य को भी बढ़ाते हैं। छहढाला में कविवर दौलतराम ने कहा भी हैमुनिसकलव्रती बड़भागी भव भोगनतैं वैरागी । वैराग्य उपावन माई चिन्तै अनुप्रेक्षा भाई ॥ ( पंचम ढाल ) हे भाई! महाव्रती मुनिराज बड़े भाग्यवान हैं वे संसार और भोंगों से हो जाते हैं। वे मुनिराज वैराग्य को उत्पन्न करने के लिये माता के समान बारह भावनाओं का चिंतवन करते हैं। इन चिन्तत सब सुख जागै जिमि ज्वलन पवन के लागे । जब ही जिय आतम जानै तब ही जिय शिव सुख ठानै ॥ ( 2 ) जैसे हवा के लगने से अग्नि प्रज्जवलित हो उठती है, वैसे ही भावनाओं का चितवन करने से समतारूपी सुख जागृत हो जाता है। जब यह जीव अपनी आत्मा के स्वरूप को पहिचान लेता है उसी समय मोक्ष सुख को पा लेता है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम, चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम तथा क्षयोपशम और अंगोपांग नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाली आत्मा के द्वारा जो भायी जाती है, जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है वे भावनायें कहलाती हैं। अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ वाङ्मनोगुप्तिर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकित पान भोजनानि पञ्च । (4) The 5 (meditations for the vow against injury are :) वाग्गुप्ति Preservation of speech; मनोगुप्ति Preservation of mind; Jain Education International For Personal & Private Use Only 407 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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