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सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम्। अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम्॥(4)॥
वह चारित्र सकल चारित्र और विकल चारित्र के भेद से दो प्रकार का है। उनमे से सम्पूर्ण चारित्र समस्त परिग्रहों से रहित मुनियों के और एकदेश चारित्र परिग्रह युक्त गृहस्थों के होता है।
जो तसवहाउ विरदो अविरदओ तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविदो जिणेक्कमई॥(31)॥
(गो.सा.पृ.24) जो जीव जिनेन्द्र देव में अद्वितीय श्रद्धा को रखता हुआ त्रस की हिंसा से विरत और उस ही समय में स्थावर की हिंसा से अविरत होता है उस जीव को विरताविरत कहते हैं। महाव्रती
संजलणणोकसायणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो॥(32)
(गो.सा.24) :: सकल संयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानानवरण कषाय का क्षयोपशम होने से पूर्ण संयम तो हो चुका है, किन्तु उस संयम के साथ-साथ संज्वलन
और नोकषाय का उदय रहने से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है। अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्त विरत कहते हैं।
विगलितदर्शन मोहैः समंजसज्ञानविदिततत्त्वाथैः । ... नित्यमपि निप्रकम्पैः सम्यक चारित्रमालंब्यम्॥(31)
पु.सि.उ.पृ.101 नष्ट हो चुका है दर्शन मोहनीय कर्म जिनका सम्यग्ज्ञान के द्वारा जाने हैं जीव अजीव आदिक तत्व जिन्होंने जो सदा अडोल अथवा अचल रहने वाले हैं ऐसे पुरुषों-जीवों द्वारा सम्यक् चारित्र धारण किया जाना चाहिए। दौलतराम जी ने छहढाला में भी अणुव्रती एवं महाव्रती का वर्णन निम्न प्रकार किया है
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