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. जब सम्यक् दृष्टि के चारित्र मोहनीय कर्म अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का विशेष क्षयोपशम होता है तब वह जीव देशविरत पंचम गुणस्थान वर्ती जीव बन जाता है। समन्तभद्रस्वामी ने श्रावकाचार संहिता स्वरूप रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा भी है
दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ( 2 ) मोह रूपी अन्धकार के दूर होने पर सम्यक्दर्शन की प्राप्ति से जिसे सम्यक्ज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसा भव्य जीव रागद्वेष की निवृत्ति के लिये चारित्र को प्राप्त होता है।
मोहतिमिरापहरणे रागद्वेषनिवृत्यै
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूपी पापों को त्याग करना चारित्र है । परन्तु जिसकी प्रत्याख्यान कषाय चतुष्क एवम् संज्वलन कषाय चतुष्क का उदय रहता है तब वह जीव सकल चारित्र को धारण नहीं कर पाता है, परन्तु श्रावक योग्य पंचमगुणस्थान वर्ती देशचारित्र को धारण करता है। जिसका केवल संज्वलन चतुष्क का उदय है वह सकल चारित्र को धारण कर लेता है । इस अपेक्षा चारित्र (व्रत) के दो भेद हो जाते हैं (1) देश या अणुव्रत (2) पूर्ण या महाव्रत । अमृतचन्द्र सूरि ने कहा भी है
हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मत: कात्स्न्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते
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हिंसा से, असत्य वचन से, चोरी से, कुशील से, परिग्रह से समस्त विरत और एक देशविरत से चारित्र दो प्रकार होता है ।
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परिग्रहत: । द्विविधं ॥40॥
(g.ff.q.105)
निरतः कात्स्नर्यनिवृत्तौ भवति यति: समयसारभूतोऽयम् । त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको
या
सर्वथा त्याग रूप चारित्र में लवलीन रहने वाले ये मुनि महाराज आत्मा के सारभूत शुद्धोपयोग रूप आत्मा स्वरूप में आचरण करने वाले होते हैं, यह जो एकदेश रूप त्याग है उसमें लवलीन रहने वाला श्रावक होता है।
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भवति ॥ ( 41 )
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