________________
(15) मोक्षमार्ग की प्रभावना :- ज्ञान, तप, जिनपूजा विधि आदि के द्वारा धर्म का प्रकाशन करना मार्गप्रभावना है। परसमय रूपी खद्योत के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञान रूपी सूर्य की प्रभा से, इन्द्र के सिंहासन को कँपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों के द्वारा और भव्यजन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य की प्रभा के समान जिनपूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है। (16) प्रवचन वात्सल्य :- बछड़े में गाय के समान धार्मिक जनों में स्नेह प्रवचनवात्सल्य है। जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है, उसी प्रकार साधर्मिक जनों को देखकर तद्गत स्नेह से ओतप्रोत हो जाना, वा चित्त का धर्मस्नेह से आर्द्र हो जाना प्रवचनवात्सल्यत्व है; जो साधर्मियों के साथ स्नेह है, वही तो प्रवचनस्नेह है।
___ सम्यक् प्रकार से पृथक्-पृथक् या सर्वरूप से भावित ये षोड़शकारणभावनायें तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होती हैं।
नीच गोत्र का आस्रव परात्मनिन्दाप्रशंसे सद्सद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य। (25) . The inflow of te val low-family-determining karma is caused by (1) परनिन्दा Seaking ill of others. (2)||CHYSTAT Praising oneselt. (3) सद्गुणोच्छादन Concealing the good qualities of others; and. (4) असद्गुणोद्भावन Proclaiming in oneself the good qualities which one does not possess. परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन, असद्गुणों का उद्भावन ये नीच गोत्र के आस्रव हैं। सच्चे या झूठे दोष को प्रकट करने की इच्छा निन्दा है। गुणों के प्रकट करने का भाव प्रशंसा है। पर और आत्मा शब्द के साथ इनका क्रम से सम्बन्ध होता है। यथा परनिन्दा और आत्म प्रशंसा। रोकनेवाले कारणों के रहनेपर प्रकट नहीं करने की वृत्ति होना उच्छादन है और रोकनेवाले कारणों का अभाव होने
395
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org