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________________ परिपालन के लिए क्रोधादि के त्याग रूप शीलों में मन, वचन, काय की निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतेष्वनतिचार है। (4) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग :- ज्ञानभावना से नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोग है। जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्वविषय को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानना है लक्षण जिनका ऐसे मतिज्ञानादि विकल्परूप ज्ञान पाँच प्रकार के हैं। अज्ञान की निवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति, अहित - परिहार और उपेक्षा यह व्यवहित (परोक्ष) फल है। इस ज्ञान की भावना में सदा तत्पर रहना ही अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। (5) सतत संवेग :- संसार के दुःखों से नित्य भयभीत रहना संवेग है। शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार के प्रियवियोग, अप्रियसंयोग, इष्ट वस्तु का अलाभ आदि जनित दुःख अतिकष्टदायक हैं, अतः उन संसार दुःखों से नित्य भयभीत रहना संवेग है। ( 6 ) शक्ति के अनुसार त्याग :- पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है । पात्र के लिए दिया गया आहार उस दिन उसकी प्रीति का हेतु बनता है। अभयदान उस भव के दुःखों को दूर करनेवाला है और पात्र को संतोषजनक है। सम्यग्ज्ञान का दान अनेक सहस्र भवों के दुःखों से छुटकारा दिलाने वाला है अर्थात् अनेक भवों के दुःखों के नाश में कारणभूत है। अतः ये यथाविधि (विधिपूर्वक ) दिये गये तीनों प्रकार के दान ही त्याग कहलाते हैं। ( 7 ) शक्ति के अनुसार तप :- अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप कहलाता है । यह शरीर दुःख का कारण है, अशुचि है, यथेष्ट (इच्छानुसार) पंचेन्द्रिय के भोगों को भोगने पर भी इनसे तृप्ति नहीं होती है। अतः इसे यथेष्ट भोगविधि से पुष्ट करना युक्त नहीं है। यह अशुचि शरीर भी शीलव्रतादि गुणों के संचय में आत्मा की सहायता करता है, ऐसा विचार करके विषयों से विरक्त हो आत्मकार्य के प्रति शरीर का नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है। अतः इस शरीर से यथाशक्ति मार्ग - अविरोधी कायक्लेश रूप अनुष्ठान करना तप कहलाता है। ( 8 ) साधु-समाधि :- भाण्डागार की अग्निप्रशमन के समान मुनिगणों के तप का संधारण करना साधुसमाधि है। जैसे- भण्डार में आग लगने पर भण्डार Jain Education International For Personal & Private Use Only 393 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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