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________________ (2) नि:काङ्क्षता:-धर्म को धारण करके इस लोक और परलोक में विषयभोगों की कांक्षा नहीं करना और अन्य कुदृष्टियों की (मिथ्यादृष्टि सम्बन्धी) आकांक्षाओं का निरास करना अर्थात् मिथ्याधर्म की वांछा नहीं करना निःकांक्षित अंग है। (3) निर्विचिकित्सा :- शरीरादि के अशुचि स्वभाव को जानकर उसमें शुचित्व के मिथ्यासंकल्प को छोड़ देना, अथवा अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यह अयुक्त हैं' 'जिन प्रवचन घोर कष्टदायक है' 'ये जिनकथन घटित नहीं हो सकते' 'इत्यादि रूप से जिनधर्म के प्रति अशुभ भावनाओं से चित्त में विचिकित्सा (ग्लानि) नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है। (4) अमूढदृष्टिता:- तत्त्व के समान अवभासमान अनेक प्रकार के मिथ्यावादियों के मिथ्या मार्गों में युक्त-अयुक्त (योग्यायोग्य) भावों का परीक्षा रूपी चक्षुओं के द्वारा भले प्रकार से निर्णय करके उनसे मोह नहीं करना अमूढदृष्टि अंग है। (5) उपवृंहण :- उत्तम क्षमा आदि धर्म-भावनाओं के द्वारा आत्मीय-धर्म की वृद्धि करना, आत्मगुणों का विकास करना उपवृंहण अंग है। (6) स्थितिकरण :- कषायोदय से धर्मभ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने धर्म से परिच्युत नहीं होना, उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण अंग है। (7) वात्सलता :- जिनप्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग रखना वात्सल्य अङ्ग है। (8) प्रभावना :- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशित करना प्रभावना अंग है। (2) विनयसम्पन्नता :- ज्ञानादि में तथा ज्ञानधारियों में आदर करना तथा उनमें कषाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है। सम्यग्ज्ञानादि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञानादि के साधन (निमित्त) गुरू आदि में योग्य रीति से सत्कार आदर करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है। (3) शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना :-चारित्र के विकल्परूप शीलव्रतों में निर्दोष प्रवृत्ति शीलव्रतेष्वनतिचार है। अहिंसा आदि व्रत तथा उनके 392 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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