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________________ स्वभावमार्दवोपेता आर्जवाङ्कितविग्रहाः। सन्तोषिणः सदाचारा नित्यं मन्दकषायिणः ॥(92) शुद्धाशया विनीताश्च जिनेन्द्रगुरूधर्मिणाम्। इत्याद्यन्यामलाचारैर्मण्डिता येऽत्र जन्तवः ॥(93) ते लभन्तेऽन्यपाकेन चार्यखण्डे शुभाश्रिते। नृगति सत्कुलोपेता राज्यादिश्रीसुखान्विताम् ॥(94) जो स्वभाव से मृदुता-युक्त हैं, जिनका शरीर सरलता से संयुक्त है, सन्तोषी हैं, सदाचारी हैं, सदा जिनकी कषाय मन्द रहती है, शुभ अभिप्राय रखते हैं, विनीत हैं, जिनेन्द्र देव, निर्ग्रन्थ गुरू और जिनधर्म का विनय करते हैं, इन तथा ऐसे ही अन्य निर्मल आचरणों से जो जीव यहां पर विभूषित होते हैं, वे पुण्य के परिपाक से शुभ के आश्रयभूत आर्यखण्ड में सत्कुल से युक्त, राज्यादि लक्ष्मी के सुख से भरी हुई मनुष्यगति को प्राप्त करते हैं। (श्री वीरवर्धमानचरिते) ऋजुत्वमीषदारम्भपरिग्रहतया सह। स्वभावमार्दवं चैव गुरुपूजनशीलता॥(40) अल्पसंक्लेशता दानं विरतिः प्राणिघाततः। आयुषो मानुषस्येति भवन्त्यासवहेतवः ॥(41) · अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह के साथ परिणामों में सरलता रखना, स्वभाव से कोमल होना, गुरुपूजन का स्वभाव होना, अल्प संक्लेश का होना, दान देना और प्राणिघात से दूर रहना ये मनुष्यायु के आम्रव के कारण हैं। ___ (तत्त्वार्थसार-चतुर्थाधिकार पृ.120) स्वभाव मादर्व च। (18) Natural humble disposition is also the cause of human-age-karma. स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आम्रव है। उपदेश की अपेक्षा के बिना होने वाली कोमलता स्वाभाविक कहलाती है। मृदु का भाव या कर्म मार्दव है, स्वभाव से होने वाला अर्थात् परोपदेश के 385 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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