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________________ दया दानं तपः शीलं सत्यं शौचं दमः क्षमा। वैयावृत्यं विनीतिश्च जिनपूजार्जवं तथा॥(25)॥ (अ.4) सरागसंयमश्चैव संयमासंयमस्तथा। भूतव्रत्यनुकम्पा च सद्वेद्यासवहेतवः ॥(26) दया, दान, शील, तप, सत्य, शौच, इन्द्रियदमन, क्षमा, वैयावृत्य, विनय, जिन पूजा, सरलता, सरागसंयम, संयमासंयम, भूतानुकम्पा और व्रत्यनुकम्पा ये सातावेदनीय के आम्रवके हेतु है। दर्शनमोहनीय का आस्रव । केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। (13) The inflow of the HR right-belief-deluding-karmic maiter is caused by अवर्णवाद deleming the Ommiscient Lord अरहत्i.c. केवलि, the scriptures श्रुत, the saint's brother hoods संघ, the true relgien धर्म and the celestial beings cal e.g. saying that the celestial beings take meant or wine, etc. and to offer these as sacrifices to them. केवली श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। अतिशय बुद्धि वाले गणधर देव उनके उपदेशों का स्मरण करके जो ग्रन्थों की रचना करते हैं वह श्रुत कहलाता है। रत्नत्रय से युक्त श्रमणों का समुदाय संघ कहलाता है। सर्वज्ञ-द्वारा प्रतिपादित आगम में उपदिष्ट अहिंसा ही धर्म है। चार निकाय वाले देवों का कथन पहले कर आये हैं। गुणवाले बड़े पुरुषों में जो दोष नहीं है उनका उनमें उद्भावन करना अवर्णवाद है। इन केवली आदि के विषय में किया गया अवर्णवाद दर्शनमोहनीय के आस्रव का कारण है। यथा केवली कवलाहार से जीते हैं इत्यादि रूप से कथन करना केवलियों का अवर्णवाद है। शास्त्रों में मांस भक्षण आदि को निर्दोष कहा है इत्यादि रूप से कथन करना श्रुत का अवर्णवाद है। ये शूद्र हैं, अशुचि हैं, इत्यादि. रूप से अपवाद 378 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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