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________________ अथवा, कषायले पदार्थ के समान कर्मरज के संश्लेषण में कारण होने से क्रोधादि परिणाम कषाय हैं। जैसे- वटवृक्ष आदि का चेप चिपकने में कारण होता है, वैसे ही आत्मा के क्रोधादि परिणाम भी कर्मबन्धन के कारण होने से कषाय कहे जाते हैं। जो जीव कषायसहित है, वह सकषाय है और जो कषायरहित जीव है वह अकषाय कहलाता है। सकषाय और अकषाय परिणामों को सकषायाकषाय परिणाम कहते हैं। चारों तरफ से आत्मा का पराभव करने वाला सम्पराय है। कर्मों के द्वारा चारों ओर से आत्मा का (आत्मा के स्वरूप का) अभिभव- पराभव, तिरस्कार होना सम्पराय कहलाता है। सम्पराय (संसार) जिसका प्रयोजन है, वह साम्परायिक है। ईर्या जिसका द्वार है वह ईर्यापथ है। ईर्या (योग) है पन्था (द्वार) जिसका वह ईर्यापथ कहलाता है, अर्थात् जो कर्म मात्र योग से ही आते हैं, आना मात्र ही जिनका कार्य है, वे ईर्यापथाम्राव कहलाते हैं। सकषाय आत्मा के साम्परायिक कर्मों का आस्रव होता है और अकषाय आत्मा के ईर्यापथ आस्रव होता है, ऐसा यथासंख्या लगाना चाहिये। जैसे- साम्पराय कषाय का वाची है। मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक कषाय के उदय से आर्द्र परिणाम वाले जीवों के योग के द्वारा आये हुए कर्म भाव से उपश्लिष्यमाण वर्गणायें गीले चमड़े पर आश्रित धूलि की तरह चिपक जाती हैं, उनमें स्थिति । बंध हो जाता है, वह साम्परायिक आस्रव कहलाता है। उपशान्तकषाय,क्षीणकषाय और सयोगकेवली के योगक्रिया से आये हुए कर्म कषाय का चेप न होने से (कषाय के अभाव में बंध का अभाव होने से) सूखी दीवाल पर पड़ी । हुई धूलि के समान द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बन्धस्थान को प्राप्त नहीं होते हैं, यह ईर्यापथ आस्रव है। साम्परायिक आस्रव के भेद इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया: पञ्चचतुः पञ्चविंशतिसंख्या पूर्वस्य भेदाः। (5) The Kinds of the first i.e. mundance inflow are 39 in number. 5 caused by the activity of the 5 senses gros 4 cause by the activity of the 360 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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