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________________ होता। . जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहोतस्स ॥(157) जो अर्हन्तों, सिद्धों तथा अनगारों को जानता है और श्रद्धा करता है, और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, उसका वह उपयोग शुभ है। विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चितदुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो॥(158) जिसका उपयोग विषय कषाय में अवगाढ़ (मग्न) है, कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, कषायों की तीव्रता में अथवा पापों में उद्यत है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसका वह उपयोग अशुभ है। __ स्वामी की अपेक्षा आस्रव के भेद सकषायाकषाययो: सांपरायिकर्यापथयोः। (4) Souls affected with the passions have AIFERIT or mundane inflow, i,e, inflow of karmic matter which causes the cycle of births and rebirths. Those without the passions have $47994 transient or fleeting inflow कषायरहित और कषायसहित आत्मा का योग क्रम से साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रव रूप हैं। सामान्य रूप से आस्रव एक प्रकार होते हए भी स्वामी एवं कारणों के भेद से आस्रवों के भेद-प्रभेद हो जाते हैं। यहाँ पर मुख्यत: स्वामियों की अपेक्षा दो भेद किया गया है- (1) कषाय सहित जीवों के साम्परायिक आस्रव (2) कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव है। जो आत्मा को कसे, दुःख दे, वह कषाय है। क्रोधादि परिणाम कषाय हैं क्योंकि ये क्रोधादि परिणाम आत्मा को दुर्गति में ले जाने के कारण होने से आत्मा को कसते हैं, आत्मा के स्वरूप की हिंसा करते हैं, अत: ये कषाय 359 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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