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कालो त य ववएसो, सब्भावपरूवओ हवदि णिच्चो । उप्पण्णप्पद्धंसी, अवरो
काल यह व्यपदेश (संज्ञा) मुख्यकाल का बोधक है; निश्चय काल द्रव्य के अस्तित्व को सूचित करता है क्योंकि बिना मुख्य के गौण अथवा व्यवहार की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यह मुख्य काल द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य है तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा उत्पन्नध्वंसी है तथा व्यवहार काल वर्तमान की अपेक्षा उत्पन्नध्वंसी है और भूत भविष्यत की अपेक्षा दीर्घान्तरस्थायी है।
दीहंतरट्ठाई ।। (580) ( गो . पृ. 263 )
जो लोकाकाश के एक-2 प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक-2 स्थित हैं वे कालाणु है और असंख्यात द्रव्य है ।
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लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया ह इक्किक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ ( 22 ) ( द्रव्य, पृ.49)
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ववगदपणवण्णरसो ववंगददोगंध अट्ठफासा य । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो
जो पांच वर्ण, पांच रस से रहित है व जो दो गंध व आठ स्पर्श से रहित है, अगुरुलघु गुण के द्वारा षट् गुणी - हानि वृद्धिसहित है, अमूर्तिक ऐसा यह कालद्रव्य है।
त्ति ।। (24) (पंचा, पृ. 87)
समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि को व्यवहार काल कहते हैं। जब एक पुद्गल का परमाणु एक कालाणु से निकटवर्ती कालाणुपर मंदगति से उल्लंघ कर जाता है तब समय नाम का सबसे सूक्ष्म व्यवहारकाल प्रकट होता है अर्थात् इतनी देर को समय कहते हैं। आंखों की पलक लगाने से निमिष, जल के
कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो । दोहं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ।। (100)
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