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वस्तु स्वरुप की सिद्धि अर्पितानर्पितसिद्धेः । (32)
The Contradictary characteristics are established from different points of view.
मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एक वस्तु में विरोधी मालूम पड़ने वाले दो धर्मो की सिद्धि होती है।
द्रव्य में अनंत गुण एवं पर्याय होती हैं उन अनंत गुण एवं पर्यायों का कथन एक साथ नहीं हो सकता है परन्तु उस द्रव्य को जानना अनिवार्य है क्योंकि द्रव्य के यथार्थ ज्ञान बिना रत्नत्रय की उपलब्धि नहीं हो सकती एवं रत्नत्रय के बिना मोक्षमार्ग नहीं हो सकता, मोक्ष मार्ग के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता, और मोक्ष के बिना शाश्वतिक सुख नहीं मिल सकता है। इसलिये यहां पर वस्तु स्वरूप के यथार्थ परिज्ञान की सर्वश्रेष्ठ व्यावहारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रणाली का वर्णन किया गया है।
धर्मान्तरको विवक्षा से प्राप्त प्राधान्य अर्पित कहलाता है। अनेक धर्मात्मक वस्तु के प्रयोजन वश जिस धर्म की विवक्षा की जाती है या विवक्षित जिस धर्म को प्रधानता मिलती है, उसे अर्थरूप को अर्पित (मुख्य) कहते हैं ।
अर्पित से विपरीत अनर्पित (गौण) है। प्रयोजक के प्रयोजन का ( वक्ता इच्छा का) अभाव होने से सत् (विद्यमान ) पदार्थ की भी अविवक्षा हो जाती है, अतः उपसर्जनीभूत ( गौण) पदार्थ अनर्पित (अविवक्षित) कहलाता • है। वस्तु स्वरूप को जानने की जो गौण - मुख्य व्यवस्था है उसका व्यावहारिक सटीक वर्णन अमृतचंद सूरि ने पुरूषार्थ सिद्धी. ग्रन्थ में वर्णन किया है। यथाश्लथयंती
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नाकर्ष वस्तुतत्त्वमितरेण । अंतेन जयति जैनी नीतिर्मथाननेत्रमिव गोपी ॥ (225)
जिस प्रकार ग्वालिन दही को बिलोती हुई एक रस्सी को अपनी और खींचती है दूसरी रस्सी को ढीली करती है । यद्यपि रस्सी एक होने पर भी रई में लिपटी हुई रहने के कारण दो भागों में बंट जाती है, उसे गोपिका दोनों
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