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________________ ये द्रव्य नित्य हैं क्योंकि अपने स्वभाव से नष्ट नहीं होते। अपना स्वभाव ही प्रत्यभिज्ञान का कारण कहा जाता है। भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ॥(15) (पंचास्तिकाय) सत् द्रव्य का-द्रव्यरूप से विनाश नहीं है, अभावका-असत् अन्य द्रव्य का द्रव्यरूपसे उत्पाद नहीं है, परन्तु भाव सत् द्रव्ये, सत् के विनाश और असत् के उत्पाद बिना ही, गुणपर्यायों में विनाश और उत्पाद करते हैं। जिस प्रकार घी की उत्पत्ति में गोरसका-सत्का-विनाश नहीं है तथा गोरस से भिन्न पदार्थान्तर का असत्का-उत्पाद नहीं है, किन्तु गोरस को ही सत्का विनाश और असत् का उत्पाद किये विना ही, पूर्व अवस्थासे विनाश को प्राप्त होने वाले और उत्तर अवस्था से उत्पन्न होने वाले स्पर्श-रस-गंध-वर्णादिक परिणामी गुणों में मक्खनपर्याय विनाश को प्राप्त होती है तथा घीपर्याय उत्पन्न होती है, सर्वभावों का भी उसी प्रकार वैसा ही है (अर्थात् समस्त द्रव्यों का नवीन पर्याय की उत्पत्ति में सत्का विनाश नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है, किन्तु सत् का विनाश और असत्का उत्पाद किये बिना ही, पहले की (पुरानी) अवस्था से विनाश को प्राप्त होने वाले और बादकी (नवीन) अवस्था से उत्पन्न होने वाले परिणामी गुणों में पहले की पर्याय का विनाश और बादकी पर्याय की उत्पत्ति होती है।) छदव्वावट्ठाणं, सरिसं तियकाल अत्थपज्जाये। वेंजणपज्जाये वा, मिलिदे ताणं ठिदित्तादो॥(581) अवस्थान = स्थिति छहों द्रव्यों की समान है। क्योंकि त्रिकालसम्बन्धी अर्थपर्याय वा व्यञ्जनपर्याय के मिलने से ही उनकी स्थिति होती है। एयदवियम्मि जे, अत्थपज्जया वियणपज्जया चावि। तीदाणागदभूदा, तावदियं तं हवदि दव्वं ॥(582) एक द्रव्य में जितनी त्रिकालसम्बन्धी अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय हैं उतना ही द्रव्य है। (गोम्मटसार जीवकाण्डम्, पृ.265) 328 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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