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इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदित्ति सव्वगयं।
उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ॥(97)
धर्म का उपदेश करने वाले जिनवर वृषभ के द्वारा इस विश्व में विविध लक्षण वाले द्रव्यों का वास्तव में 'सत्' ऐसा सर्वगत (सब में व्यापने वाले) एक लक्षण कहा गया है।
वास्तव में इस विश्व में, विचित्रता को विस्तारित करते हुए (विविधता अनेकत्व को दिखाते हुए), अन्य द्रव्यों से व्यावृत्त (भिन्न) रहकर वर्तमान, और प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बाँधते हुए, ऐसे विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व से लक्षित भी सर्व द्रव्यों की, विचित्रता के विस्तार को अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहने वाला, और प्रत्येक द्रव्य की बंधी हुई सीमा को भेदता (तोड़ता) हुआ, 'सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्य लक्षणभूत एक सादृश्यास्तित्व है, वह ही वास्तव में एक ही जानने योग्य है। इस प्रकार 'सत्' ऐसा कथन और 'सत्' ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थों का परामर्श (स्पर्श ग्रहण करने वाला है। यदि वह ऐसा (सर्व पदार्थ परामर्शी) न हो तो कोई पदार्थ सत्, कोई असत्, और कोई अवाच्य होना चाहिए, किन्तु वह तो निषिद्ध ही है,
और यह (सत्, ऐसा कथन और ज्ञान के सर्व पदार्थ परामर्शी होने की बात) तो सिद्ध हो सकती है।
दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा।(98)
द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध और स्वभाव से ही 'सत्' है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने यथार्थत: कहा है, इस प्रकार आगम से सिद्ध है।
___ वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्यों के स्वभावसिद्धपना है (सर्व द्रव्य, पर-द्रव्य की अपेक्षा बिना, अपने स्वभाव से ही सिद्ध है) उनकी स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता है, क्योंकि अनादिनिधन अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता। वह (द्रव्य) गुणपर्यायात्मक अपने स्वभाव को ही जो कि मूलसाधन है, धारण करके स्वयमेव सिद्ध और सिद्धि वाला हुआ वर्तता है। जो द्रव्यों में उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, (किन्तु) कदाचित् अर्थात् कथंचित् (अनित्यता) के होने से वह पर्याय
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