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________________ लिङ्ग परिचायक चिन्ह कहा है। परिणाम का लक्षण : स्वजातेरविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः । परिणामः स निर्दिष्टोऽपरिस्पन्दात्मको जिनैः ॥ (46) अपनी जाति का विरोध न करते हुए वस्तु का जो विकार है- परिणमन है उसे जिनेन्द्र भगवान् ने परिणाम कहा है। यह परिणाम हलन चलनरूप नहीं होता । क्रिया का लक्षण : या निमित्ताभ्यां प्रजायते । प्रयोगविसाभ्यां द्रव्यस्य सा परिज्ञेया परिस्पन्दात्मिका क्रिया ॥ ( 47 ) प्रेरणा और स्वभाव इन दो निमित्तों से द्रव्य में जो हलन चलनरूप परिणति होती है उसे क्रिया जानना चाहिये । परत्व और अपरत्व का लक्षण : परत्वं ते Jain Education International विप्रकृष्टत्वमितरत्सन्निकृष्टता । च कालकृते ग्राह्ये कालप्रकरणादिह ॥ ( 48 ) दूरी को परत्व और निकटता को अपरत्व कहते हैं । यहाँ काल द्रव्य प्रकरण होने से दूरी और निकटता ही ग्रहण करना चाहिए। छहों द्रव्य में से विश्व संरचना के लिए जीव का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है। जीव ज्ञाता है, दृष्टा है, कर्त्ता है, भोक्ता है, प्रभू है, विभु है। जीव बिना समस्त विश्व श्मशान के समान सन्नाटामय चैतन्य रहित है। द्वितीय महत्वपूर्ण भूमिका पुद्गल द्रव्य की है। विश्व के संचालन में जितना जीव का हाथ है उतना ही हाथ पुद्गल का भी है। विश्व की समस्त भौतिक संरचना पुद्गल से होती है। विश्व को गृह मानने पर गृह का मालिक जीव है एवं गृह का निर्माण पुद्गल से होता है। धर्म द्रव्य, आने वाले पथिक के लिए मार्ग का काम करता है, तो अधर्म द्रव्य पथिक के लिए स्टेशन है। काल पुरातन को मिटाकर नवीनीकरण के लिये सूत्रधार है तो आकाश सबको विश्राम देने के For Personal & Private Use Only 307 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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