________________
"गुरूवर की साधना एवं सिद्धि' निवाई नगरी जो पहाड़ी की तलहटी में बसा है यहाँ ही “उपाध्याय श्री कनकनंदी महाराज जी" का चार्तुमास हो रहा है इस चातुर्मास की भक्तों की भक्ति और प्राकृतिक सौन्दर्य की निराली छवि आंखों को सुहानी लगती है। वर्षा रानी भी गुरू के परिश्रम से खुश हो इस बार झूम-झूम कर आई
और उसने तमतमाते सूर्य को अपने आंचल में छुपा कर सबको शीतलता प्रदान कर आनंदित कर दिया। ऐसी वर्षा रानी की शरण पा इस.सुहाने मौसम ने प्रेरित किया “उपाध्याय कनकनंदी महाराज जी" को कि आप भी अपना कार्य करें, आपका यह वर्षा रानी स्वागत करने को तैयार है वह भी चाहती है कि आपकी लेखनी से आज की सोई समाज में जागृति आये और पुण्यवान जीवों की भक्ति व पुण्य से मैं खुश होकर सारे विश्व को हराभरा, सुखी, सम्पन्न बना दूँ। तो वर्षा रानी ने अपनी ठंडक से गुरूवर के तन, मन को शीतलता पहुँचायी जिससे उनका मन इस कठिन कार्य में याने "तत्त्वार्थसूत्र" की इस पुस्तक की टीका लिखने में उत्सुक हो उठा। एक घटना और घटी। और घटना घटनी भी स्वाभाविक थी क्योंकि जब भी कोई महापुरुष या कोई व्यक्ति बड़ा कार्य करने के लिए कदम उठाते हैं तब परीक्षा देवी उसके सामने उनका साहस, धैर्य, उत्साह, लगन व्यक्त्वि आदि का लेखा जोखा करने आ धमकती है, और बिना उसकी मांग पूरी किये किसी की ताकत नहीं जो किसी कार्य में सफलता पा ले। तो ऐसा ही हुआ उपाध्याय कनकनन्दी महाराज जी के साथ।
उपाध्याय श्री ने 'तत्त्वार्थसूत्र' की टीका करने जिस पुस्तक पर निशान व टिप्पणी, विषय संकलन का कठिन परिश्रम किया था वहीं पुस्तक पद्मनंदी महाराज जी के संघ की ब्रह्मचारिणी के साथ चली गयी थी, इधर उपाध्याय श्री ने पुस्तक बहुत ढूँढ़ी परन्तु वह नहीं मिली तब जयपुर, बड़ौत, रोहतक सब जगह आदमी भेजकर पुछवाया, वैसे भी गुरूदेव को जिस पुस्तक से काम लेना होता है उन पुस्तकों के प्रति उनका अतिराग रहता है। अतः, जब वह पुस्तक नहीं मिली तो महाराज श्री का मन उदास हो गया और उनका होना भी स्वाभाविक था, क्योंकि वे जो भी कार्य करते हैं उसमें उनका अथक परिश्रम
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org