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द्रव्य परमाणु जितने क्षेत्र में रहता है उसको प्रदेश कहते है। कुन्दकुंद देव ने प्रवचन सार में कहा भी है
जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं।
अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो॥(137) जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं। इस प्रकार प्रदेश के लक्षण की एक-प्रकारता कही जाती है। इसीलिये, एकाणुव्याप्य (जो एक परमाणु से व्याप्य हो ऐसे) अंश के द्वारा गिने जाने पर जैसे आकाश के अनन्त अंश होने आकाश अनन्त प्रदेशी जीव के असंख्यात अंश होने से वे प्रत्येक असंख्यात प्रदेशी हैं। जैसे (संकोच-विस्तार-रहित होने की अपेक्षा) अवस्थित प्रमाण वाले धर्म तथा अधर्म असंख्यात प्रदेशी हैं। उसी प्रकार संकोच विस्तार के कारण (संकोच-विस्तार होने की अपेक्षा) अनवस्थित प्रमाण वाले जीव के सूखे गीले चमड़े की भांति-निज अंशों का अल्पबहुत्व नहीं होता (संख्या में प्रदेशों की हानि-वृद्धि नहीं होती) इसलिए असंख्यात प्रदेशित्व ही
धर्म, अधर्म और एक जीव तुल्य असंख्यात प्रदेशी हैं। उनमें धर्म और अधर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं और लोक को व्याप्त करके स्थित हैं। जीव असंख्यात प्रदेशी होने पर भी संकोच विस्तार शील होने से कर्म के अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है। जब समुद्घात काल में इसकी लोकपूरण अवस्था होती है, तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरू पर्वत के नीचे चित्र और वज्रपटल के मध्य के आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे तिरछे चारों ओर लोकाकाश को व्याप्त कर लेते हैं अर्थात् सारे लोकाकाश में फैल जाते हैं।
जैसे आकाश अखण्ड, अभेद होते हुए भी लोकाकाश एवं अलोकाकाश रूप से इसके दो भेद हो जाते हैं। लोकाकाश के भी अनेक भेद-प्रभेद हो जाते हैं जैसे उर्ध्व लोक के आकाश, मध्य लोक के आकाश, अधोलोक के आकाश इसके भी अनेक भेद हो जाते हैं। जैसे-विभिन्न घट, विभिन्न पात्र के आकाश। इसी प्रकार अखण्ड द्रव्य में भी प्रदेश भेद हो जाता है।
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