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पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हुजीविदो पुव्वं।
सो जीवो पाणा पुण वलमिंदियमाउ उस्सासो॥(30)॥
जो चार प्राणों से जीता है, जियेगा, और पूर्वकाल में जीता था वह जीव है, और वह प्राण इन्द्रिय, बल, आयु तथा श्वासोच्छ्वास है।
जीवा अणाइणिहणा संताणंता य जीवभावादो।
सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य॥(53)॥
जीव (पारिणामिक भाव से) अनादि अनंत हैं, (औपशमिक आदि तीन भावों से) सांत (अर्थात् सादि-सांत) हैं और जीव भाव से अनंत है। (अर्थात् जीव सद्भावरूप क्षायिक भाव से सादि अनंत है) क्योंकि सद्भाव से जीव अनंत ही होते हैं। वे पाँच मुख्य गुणों से प्रधानता वाले हैं।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होई उप्पादो। इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुध्दमविरुद्धं ॥(54)
इस प्रकार जीव के सत् का विनाश और असत् का उत्पाद होता हैऐसा जिनवरों ने कहा है, जो कि अन्योन्य विरूद्ध है तथापि अविरूद्ध है।
जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं॥(122)
जीव सब जानता है और देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुःख से डरता है, हित अहित को करता है और उनके (शुभ-अशुभ भाव के) फल को भोगता है। पुरूषार्थ सिद्धयुपाय में भी आचार्य अमृतचंद्र सूरि ने कहा है
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जित: स्पर्शगंधरसवर्णैः। गुणपर्ययसमवेत: समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः॥(9) स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित (वियुक्त) गुण-पर्यायों से ,विशिष्ट उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से सहित (संयुक्त) चैतन्यमय आत्मा पुरुष है।
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