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है। उसका आवास उत्तरदिशा में है। शेष छह दक्षिणाधिपति-सत्पुरुष, अतिकाय, • गैरति, पूर्णभद्र, स्वरूप और काल नामक इन्द्रों के आवास दक्षिण दिशा में हैं तथा उत्तराधिपति महापुरुष, महाकाय गीलयरा, मणिभद्र अप्रतिरूप और महाकाल नामक व्यन्तरेन्द्रों के आवास उत्तरदिशा में हैं और उनके रहने के स्थान नगर असंख्यात लाख हैं। दक्षिण दिशा में पंकबहुल भाग में भीम नामक राक्षसेन्द्र के असंख्यात लाख नगर कहे गये हैं और उत्तराधिपति महाभीम नामक राक्षसेन्द्र के उत्तरदिशा में पंकबहुल भाग में असंख्यात लाख नगर हैं।
इन सोलहों व्यन्तर इन्द्रों के सामानिक आदि विभव-परिवार तुल्य हैं अर्थात् चार हजार सामानिक, तीन परिषद्, सात अनीक, चार अग्रमहिषियाँ
और सोलह हजार आत्मरक्षक देव प्रत्येक इन्द्र के हैं। भूमितल पर भी द्वीप, पर्वत, समुन्द्र, देश, ग्राम, नगर, त्रिक (तिराहा), चौराहा, घर, आंगन, गली, जलाशय, उद्यान और देवमन्दिर आदि स्थानों में व्यन्तर देवों के असंख्यात लाख आवास कहे गये हैं।
देश, विदेश में, धर्म में, लोक में , आयुर्वेद, मंत्र-तंत्र यहाँ तक कि वर्तमान विज्ञान एवं मनोविज्ञान में भी भूत की मान्यता एवं समस्यायें भी हैं। कोई-कोई भूत को पूर्ण रूप से नहीं मानते हैं तो कहीं-कहीं भूत की अतिमान्यता भी है। कुछ आदिवासी (भील, शबर) कुछ धर्मान्ध व्यक्ति भूत को देव मानकर पूजा भी करते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि, मरने के बाद जीव को जब तक अन्य गति नहीं मिलती है तब तक वह भूत बनकर इधर उधर घूमता फिरता है। इस प्रकार लोक में भूत सम्बन्धी अनेक अतिवाद ‘कल्पना' हैं। परन्तु इस सूत्र में आचार्यश्री ने भूतादि के सत्य स्वरूप का वर्णन किया है। ... इसके पहले-पहले आप लोगों ने अध्ययन किया है कि संसार में जो अनंतानंत जीव हैं उनके दो भेद हैं:- (1) संसारी (2) मुक्त। कर्म रहित एवं अनन्त ज्ञान, दर्शन सहित, जीव को मुक्त जीव कहते हैं। कर्म सहित जीव को संसारी जीव कहते हैं। कर्म सहित जीव के चार भेद हैं:- देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकी। देव के चार भेद हैं। यथा- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। उनमें से जो व्यन्तर देव हैं उनके फिर आठ भेद हो गये हैं:-भूत, पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि। जो जीव हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप से लिप्त रहते हैं, और थोड़े से निरतिशय पुण्य (पापानुबंधी पुण्य) से सहित होते
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