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________________ का भाव सामानिक कहलाता है। 3. वायस्त्रिंश - मंत्री, पुरोहित स्थानीय 'त्रायस्त्रिंश' कहलाते हैं। जैसे यहाँ पर हिताहित की शिक्षा देने वाले मंत्री, पुरोहित आदि होते हैं; उसी प्रकार देवों में इन्द्रों को हितकारी शिक्षा देने वाले त्रायस्त्रिंश देव होते हैं। ऐसा जानना चाहिए। इनकी त्रायस्त्रिंश यह संज्ञा (नाम) क्यों है ? त्रयस्त्रिंशत् में होने वाले त्रायस्त्रिंश होते हैं। 'त्रयस्त्रिंशत् जाता : त्रायस्त्रिंशा :' अर्थात् तैंतीसों में जो उत्पन्न हो वे त्रायस्त्रिंश कहे जाते हैं। 4. पारिषद् - मित्र और पीठमर्द सदृश पारिषद् होते हैं। परिषद् (सभा) में होने वाले पारिषद् कहलाते हैं। अथवा जो मित्र और पीठमर्द अर्थात् नर्तकाचार्य के समान विनोदशील होते हैं वे पारिषद् कहलाते हैं। 5. आत्मरक्षक - शिरोरक्ष की उपमा वाले आत्मरक्षक कहलाते हैं। जो आत्मा की रक्षा करता है, वह आत्मरक्ष कहलाता है, जैसे यहाँ पर शिरोरक्ष होते हैं। अंगरक्षकों के समान जो कवच पहिने हुए, सदा मारने के लिए उद्यत, रौद्रमूर्ति, वीर वेष के धारक और इन्द्र की पीठ के पीछे खड़े रहते हैं, वे आत्मरक्ष देव हैं। शंका - देवों के अपाय का अभाव है - अत: उनमें आत्मरक्ष आदि की कल्पना व्यर्थ है ? उत्तर - यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार का भय नहीं है फिर भी उसकी विभूति को द्योतन करने के लिए तथा प्रीति की प्रकर्षता का कारण होने से दूसरों . पर प्रभाव डालने के लिए आत्मरक्ष होते हैं; अर्थात् इस सब परिकर को देखकर इन्द्र को परम प्रीति होती है। • 6. लोकपाल - अर्थरक्षक के समान लोकपाल होते हैं। लोक का पालन केरे वह लोकपाल है। उनकों यहाँ के कोटपाल के समान समझना चाहिए। ये लोकपाल कोतवाल के समान नगररक्षक हैं। • 1. अनीक - दंड स्थानीय अनीक होते हैं। जैसे यहाँ पर हाथी, घोड़ा, पदाति, बैल, गन्धर्व, नर्तकी और रथ यह सात प्रकार की सेना है, उस पदाति आदि 229 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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