SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परस्पर के लड़ने-झगड़ने आदि के ही कष्ट नहीं मिलते परन्तु तीसरे नरक तक के नारकियों को दुष्ट परिणाम वाले अम्बरीष आदि असुर कुमार भवनवासी देव भी दुःख देते हैं। पूर्व भव के संक्लेश परिणामों से उपार्जित अशुभ कर्म के उदय से निरन्तर क्लिष्ट होने से वे संक्लिष्ट कहलाते हैं। पूर्व जन्म में भावित अतितीव्र संक्लेश परिणाम से उपार्जित जो पाप कर्म हैं, उनके उदय से वे निरन्तर क्लिष्ट रहते हैं इसलिये संक्लिष्ट हैं। असुर नामकर्म के उदय से असुर होते हैं। असुरत्व संवर्तन देवगति नामकर्म के विकल्प कर्म के उदय से दूसरों को दुःख देते हैं, वे असुर कहलाते हैं। संक्लिष्ट विशेषण अन्य असर जाति देवों की निवृत्ति के लिये है। सभी असुर जाति के देव नारकियों को दुःख नहीं देते हैं- अपितु अम्ब, अम्बरीष आदि जाति के कुछ ही असुर नारकियों को परस्पर भिड़ाते हैं, उसको दर्शाने के लिये (अर्थात् सर्व असुरों की निवृति के लिये) संक्लिष्ट विशेषण है। नारकियों को परस्पर दुःख देने के कारणभूत उन संक्लिष्टपरिणामी असुरकुमारों का गमन तीसरे नरक तक ही है, उसके नीचे के नरकों में जाने की शक्ति उनमें नहीं है। इस बात को बताने के लिये “प्राक्चतुर्थ्या:" यह विशेषण दिया है। नरकों में उत्कृष्ट आयु का प्रमाण तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमासत्त्वानां-परा स्थितिः। (6) In these seven hells the maximum age of hellish beings of different earths as follows: 1 सागरोपमा or सागर Simply in the 1st eath. 3सागरोपमा or सागर Simply in the 2nd earth. 7सागरोपमा or सागर Simply in the 3rd earth. or सागर Simply in the 4th earth. 17सागरोपमा or सागर Simply in the 5th earth. 194 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy