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में परम कृष्ण लेश्या है। लेश्या द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार की है। उसमें उन नारकियों की द्रव्यलेश्या तो अपनी अवधृत ( निश्चित ) आयु प्रमाण है और भाव लेश्या तो छहों ही अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तित हो जाती हैं। अशुभतर परिणाम
उस क्षेत्र के कारण वहां के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द परिणाम अति दुःख के कारण होने से अशुभतर होते हैं । अर्थात् महादुःखदायी नरक क्षेत्र के कारण वहां के पदार्थों का स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णादि का परिणमन महादुःख रूप हो जाता है। जब शीत की वेदना से व्याकुल होकर किसी पदार्थ को उष्ण समझ कर उसका स्पर्श करते हैं तो उसके स्पर्श से शरीर के खंड -2 हो जाते हैं। किसी वस्तु को खाते हैं तो जिव्हा कट कर गिर जाती है । अशुभतर शरीर
उनके शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से अशुभ अंगोपांग, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वर वाले और वीभत्स तथा निर्लन (पंख रहित ) अण्डज (पक्षियों)
आकृति वाले होते हैं। उनका संस्थान हुण्डक होता है । वे देह क्रूर, वीभत्स एवं भयंकर दिखते हैं। अर्थात् उन नारकियों के शरीर को देखकर क्रूरता, भय, ग्लानि उत्पन्न हो जाती है । यद्यपि उन नारकियों का शरीर वैक्रियिक है तथापि उसमें इस औदारिक शरीरगत मल- - मूत्रादिक से अधिक खंखार, मूत्र, मल (टट्टी) रूधिर, मज्जा, पीप, वमन, मांस, केश, अस्थि (हड्डी) चर्मादि वीभत्स सामग्री रहती है इसलिये उनकी देह अति अशुभतर है। रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल है । आगे के नरकों में दूनी - 2 होकर सातवें नरक में 500 धनुष हो जाती है। अशुभतर वेदना:
अभ्यन्तर असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर अनादि स्वाभाविक शीत - उष्ण जन्य बाह्य निमित्त से होने वाली तीव्र वेदना होती है। जैसे ग्रीष्म ऋतु के मध्यान्ह काल में बादलरहित आकाश में महातीक्ष्ण सूर्य किरणों से सन्तप्त दिगन्तराल में जहाँ शीत वायु का प्रवेश नहीं है, दावाग्नि के समान अत्यन्त ऊष्ण एवं रूक्ष वायु चल रही है; ऐसे मारवाड़ देश में चारों तरफ से दीप्त अग्निशिखा से व्याप्त प्यास से आकुलित निष्प्रतिकार पित्त ज्वर से
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