________________
जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होई।(490) कषायोदय से अनुरक्त योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। . नारकियों की लेश्या
काऊ काऊ काऊ, णीला णीला य णील किण्हा य। किण्हा य परमकिण्हा, लेस्सा पढमादिपुढवीणं॥(529)
पहली धम्मा या रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोतलेश्या का जघन्य अंश है। दूसरी वंशा या शर्कराप्रभा पृथ्वी में कापोतलेश्या का मध्यम अंश है। तीसरी मेघा या बालुकाप्रभा पृथ्वी में कापोतलेश्या का उत्कृष्ट अंश और नील लेश्या का जघन्य अंश है। चौथी अंजना या पंकप्रभा पृथिवी में नीललेश्या का मध्यम अंश पाँचवी अरिष्टा या घूम प्रभा पृथिवी में नील लेश्या का उत्कृष्ट अंश और कृष्ण लेश्या का जघन्य अंश है। छट्ठी मघवी या तमः प्रभा पृथिवी में कृष्ण लेश्या का मध्यम अंश है। सातवीं माघवी या महातम: प्रभा पृथिवी में कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अंश है।
इस स्वामी अधिकार में भाव लेश्या की अपेक्षा से ही कथन की मुख्यता है। इसलिये पूर्वोक्त प्रकार से यहाँ नरकों में भावलेश्या ही समझना। यद्यपि देवगति के समान नरक गति में भी द्रव्यलेश्या और भावलेश्या सदृश ही हुआ करती है। अशुभतर लेश्या
“तरप्' प्रत्यय का प्रयोग व्याकरण शास्त्र के अनुसार एक दूसरे की प्रकर्षता होने पर ही होता है। प्रतियोगी के अन्तर की अपेक्षा प्रकर्ष देखा जाता है। इस न्याय के अनुसार ऊपर के नारकियों की अपेक्षा नीचे के नारकियों की लेश्या आदि अशुभतर है। अथवा प्रथम आदि नारकियों की अपेक्षा द्वितीय आदि नारकियों में अति अधिक अशुभ लेश्या है इसलिए भी अशुभतर है।
__अशुभतर लेश्या का वास्तविक अर्थ इस प्रकार है कि, प्रथम और द्वितीय नरक में कापोतलेश्या, तृतीय नरक में ऊपर कापोत तथा नीचे नील, चौथे नरक में नील, पाँचवें में ऊपर नील और नीचे कृष्ण, छठे में कृष्ण और सातवें
190
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org