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है । उनके द्रव्यवेद और भाववेद में विपरीतता भी पाई जाती है। आंगोपांग कर्म के उदय से होनेवाले शरीरगत चिन्ह विशेष को द्रव्यवेद और मोहनीयकर्म की प्रकृति के उदय से होने वाले परिणामविशेषों को भाववेद कहते हैं।
वेद की परिभाषा
पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण
पुरिसिच्छिसंढओ
भावे ।
णामोदयेण दव्वे, पाएण समा कहिं विसमा ॥ (271) वेदनामक नोकषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है, और निर्माण नामकर्म सहित अंगोपांगनामकर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है। ये दोनों ही वेद प्राय: करके तो समान होते हैं, अर्थात् जो भाववेद वही द्रव्यवेद और जो द्रव्यवेद वही भाववेद । परन्तु कहीं कहीं विषमता भी हो जाती है, अर्थात् भाववेद दूसरा और द्रव्यवेद दूसरा । यह विषमता देवगति और नरकगति में तो सर्वथा नहीं पाई जाती। मनुष्य और तिर्यग्गति में जो भोगभूमिज हैं उनमें भी नहीं पाई जाती। बाकी के तिर्यग् मनुष्यों में क्वचित् वैषम्य भी पाया जाता है।
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वेदस्सुदीरणाए परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो । संमोहेण ण जाणदि, जीवों हु गुणं व दोषं वा ।। (272)
वेद नोकषाय के उदय तथा उदीरणा होने से जीव के परिणामों में बड़ा भारी मोह उत्पन्न होता है और इस मोह के उत्पन्न होने से यह जीव गुण अथवा दोष का विचार नहीं कर सकता ।
पुरुष
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उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का जो स्वामी हो, अथवा जो लोक में उत्कृष्ट गुणयुक्त कर्म को करे, यद्वा जो स्वयं उत्तम हो उसको पुरूष कहते
हैं।
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पुरूगुणभोगे सेदे, करेदि लोयम्मि पुरूगुणं कम्मं । पुरूउत्तमो य जम्हा, तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो ॥ ( 273 )
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