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समस्त पदार्थों का ज्ञाता उनके समान दूसरे नहीं थे । . शिला लेख नं. 108 में लिखा है
अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन ॥
आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के जानने वाले उमास्वामी मुनि हुए जिन्होंने जिन प्रणीत द्वादशांग वाणी को सूत्रों में निबद्ध किया ।
इस युग में लिपिबद्ध साहित्य की रचना भूतबलि और पुष्पदंत आचार्य से शुरू हुई और यह परम्परा कुन्दकुन्दाचार्य तक प्राकृत भाषा में ही थी परन्तु आचार्य उमास्वामी ही प्रथम आचार्य है जिन्होंने अपनी रचना संस्कृत में 'सूत्रबद्ध रूप में की।
बहुश: उस समय भारतवर्ष में संस्कृत भाषा की प्राधान्यता और प्रचुरता बहुलता हुई हो इस कारण इन्होंने अपनी रचना संस्कृत भाषा में की हो। जिस ग्रन्थ की रचना उमास्वामी ने की है, उसमें दस अध्याय है और 357 सूत्र है । इस शास्त्र का प्राचीन नाम सम्भवतः " तत्त्वार्थ" रहा होगा क्योंकि इसमें तत्त्व और उसके अर्थ का सांगोपांग वर्णन है। और भी एक कारण यह है कि इसके ऊपर और भी अनेक प्रसिद्ध टीका है। उसके अनुसार " तत्त्वार्थ" है। जैसे- पूज्य पाद की तत्त्वार्थ वृत्ति (अपरनाम - सर्वार्थसिद्धि) अंकलकदेव का तत्त्वार्थ वार्तिक ( अपरनाम - राजवार्तिक) आचार्य विद्यानन्द का श्लोक वार्तिक, श्रुतसागर की तत्त्वार्थ वृत्ति, आदि है । अमृतचन्द सूरि ने भी तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर ही श्लोक - बद्ध 'तत्त्वार्थ सार' की रचना की है। इन सब रचना में 'तत्त्वार्थ' मूल रूप में आया है। आगे जाकर इस शास्त्र का नाम " तत्त्वार्थ सूत्र ” तथा “मोक्षशास्त्र" रूप में प्रसिद्ध हुआ । बहुश: यह शास्त्र सूत्रबद्ध में रचित होने से " तत्त्वार्थ सूत्र” इस नाम से प्रसिद्ध हुआ है। इस शास्त्र में मोक्ष का सांगोपांग वर्णन होने से यह ‘मोक्षशास्त्र' नाम से प्रसिद्ध हुआ है।
इस शास्त्र के रचना के बारे में प्रसिद्ध किम्बदन्ती है कि सौराष्ट्र देश ऊजर्यन्त गिरी के निकट 'गिरी' नामक नगर में सिद्धय्य नामक विद्वान् श्रावक रहता था। उसने शास्त्र की रचना के लिए एक फलक पर "दर्शनज्ञानचारित्राणि
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