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इन्द्रसामानिक आदि में शक्ति का तारतम्य देखा जाता है। अनन्तवीर्ययति
ने इन्द्र की शक्ति को कुण्ठित कर दिया था, ऐसा श्रुत में प्रसिद्ध • है। अत: वैक्रियिक शरीर क्वचित् प्रतिघाती होता है, किन्तु सभी आहारक
शरीर तुल्य शक्ति और सर्वत्र अप्रतिघाती होते हैं। तैजस का सामर्थ्य क्रोध और प्रसन्नता के अनुसार दाह और अनुग्रह रूप है। कार्मण शरीर का सामर्थ्य सभी कर्मों को अवकाश देना है तथा उन्हें अपने
में शामिल करना है। (6) प्रमाण - प्रमाण की अपेक्षा भी इन शरीरों में भिन्नता है जैसे- जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण सूक्ष्म निगोदियों का औदारिक शरीर है और उत्कृष्ट (सबसे बड़ा) नन्दीश्वर द्वीप की, वापिका के कमल का, कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण का होता है। वैक्रियिक मूल शरीर की दृष्टि से सबसे छोटा सर्वार्थ सिद्धि के देवों के एक अरत्नि प्रमाण और सबसे बड़ा सातवें नरक में पाँच सौ धनुष प्रमाण है। विक्रिया की दृष्टि से देव उत्कृष्ट शरीर जम्बूद्वीप प्रमाण कर सकते हैं। आहारक शरीर एक अरनि प्रमाण होता है। तैजस और कार्मण जघन्य से अपने औदारिक शरीर प्रमाण होते हैं तथा उत्कृष्ट से केवलिसमुद्घात में सर्वलोक प्रमाण होते हैं। (7) क्षेत्र - क्षेत्र की अपेक्षा भी इनमें पृथकत्व है - औदारिक, वैक्रियिक
और आहारक का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तैजस एवं कार्मण शरीर लोक के असंख्यातवें भाग, असंख्यात बहुभाग प्रमाण है, प्रतर तथा
लोपूरण अवस्था में सर्वलोक क्षेत्र हैं। . ' (8) स्पर्शन - स्पर्श की अपेक्षा भी औदारिक आदि शरीर भिन्न-भिन्न हैं।
औदारिक आदि एक जीव के प्रति कहेंगे। जैसे- तिर्यचों ने औदारिक शरीर के द्वारा सर्वलोक का स्पर्श किया है और मनुष्यों ने लोक के असंख्यातवें भाग का । मूल वैक्रियिक शरीर से लोक के असंख्यात बहुभाग और उत्तर वैक्रियिक से कुछ कम 8/14 भाग स्पृष्ट होते हैं। प्रश्न - उत्तर वैक्रियिक शरीर से आठ बटे चौदह राजू का स्पर्श कैसे होता है ?
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