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________________ रोग दुर्भिक्ष आदि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाय यह शुभ रूप तेजस-समुद्घात है। आहारक शरीर का स्वामी व लक्षण शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव । (49) And the 3TER body is beneficent pure and impreventible and found only in a 949 viera Saint i.e. one in the 6 th stage of spiritual development with imperfect now. It is T always beneficent. (2) farves pure, the production of meritorious Karmas and (3) अव्याघाति unpreventible by anything in its course. आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयत के ही होता है। शुभकर्म का कारण होने से इसे शुभ कहा है। विशुद्ध कर्म का कार्य होने से आहारक शरीर को विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि जो चित्र-विचित्र न होकर निर्दोष है ऐसे विशुद्ध अर्थात् निर्दोष विशुद्ध चारित्र धारी मुनियों के होता है इसलिए भी विशुद्ध कहते हैं। पुण्य कर्म के कार्य होने से आहारक शरीर को भी विशुद्ध कहते हैं। दोनों ओर से व्याघात नहीं होता इसलिए यह अव्याघाती है। तात्पर्य यह है कि आहारक शरीर से अन्य पदार्थ का व्याघात नहीं होता और अन्य पदार्थ से आहारक शरीर का व्याघात नहीं होता। आहारक शरीर के प्रयोजन का समुच्चय करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। यथाआहारक शरीर कदाचित् लब्धि विशेष के सद्भाव को जताने के लिए कदाचित् सूक्ष्म पदार्थों का निश्चय करने के लिए और संयम की रक्षा करने के लिए उत्पन्न होता है। जिस समय जीव आहारक शरीर की रचना का आरम्भ करता है उस समय वह प्रमत्त हो जाता है। इसलिए सूत्र में प्रमत्त संयत के ही आहारक शरीर होता है यह कहा है। इष्ट अर्थ के निश्चय करने के लिये सूत्र में “एवकार" पद का ग्रहण किया है जिससे यह जाना जाए कि आहारक शरीर प्रमत्तसंयत के ही होता है अन्य के नहीं। प्रत्येक प्रमत्त संयत के भी यह शरीर नहीं होता 174 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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